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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण । केवलिने कहा- 'उसकी वह चैत्यभक्ति नहीं थी; किं तु 'मैंने ऐसा किया है। इस प्रकारके अपने आत्माभिमान( अहंकार )के पोषणके निमित्त उसकी वह ईर्ष्यालु प्रवृत्ति थी । जब किसी अन्य रानियोंके जिनमन्दिरोंमें महोत्सव होता था तो वह उसको बिगाडने के लिये अपनी शक्तिभर कोशीश करती थी। यदि वैसा करने पर भी कहीं कोई उत्सव हो जाता था तो वह अपनेको मरी हुई जैसे मानने लगती थी। इसलिये उसकी वह जिनभक्ति नहीं थी- प्रद्विष्ट प्रवृत्ति थी। उसी प्रदोषभावका यह फल है ।' यह कथानक सुना कर अजितसेन सूरिने उन धवल आदि श्रावकों को कहा कि- 'हे महानुभावो, इसलिये किसी अन्य आलंबनको ले कर प्रवृत्ति करनेसे कोई लाभ नहीं होता । जिनभगवान्के गुणोंका बहुमान करनेकी अभिलाषाहीसे पूजादि कर्तव्य करने चाहिये; न कि किसी अन्य आलंबनको उद्दिष्ट करके ।' सुन कर धवलने कहा- 'अहो, आज तक तो सब अपने अपने चैत्यालयों में पूजा संस्कारादि करके धर्म करते रहते थे, अब तुमने इसको मिथ्यात्व बतलाया है । अब फिर जो अन्य कोई आचार्य आयेगा वह तुम्हारे किये हुए वर्णनको मिथ्यात्व कहेगा । ऐसी स्थितिमें हमें कहां जाना चाहिये ? इससे तो यह सिद्ध होता है कि इस धर्मश्रवणमें कुछ भी लाभ नहीं है ।' ऐसा कह कर धवल ऊठ खडा हुआ । आचार्यके उपर उसको खूब रोष हो आया और वह अपने घर चला गया । ___ समन्तभद्र सूरिने उस धवल के जन्मकी कथाको आगे चलाते हुए विक्रमसार राजासे कहा कि- 'वह इस तरह फिर मिथ्यात्वभावको प्राप्त हो कर अपनेको तथा दूसरोंको व्युद्ग्राहित करता हुआ और उसीप्रकार चैत्यादिका पूजन करता हुआ तथा कुछ तपश्चर्यादि भी करता हुआ, आयुष्यके पूर्ण होने पर मर कर किल्विषयोनिके देवभवको प्राप्त हुआ । वहांसे मर कर फिर मनुष्य, तिर्यंच, नरक आदि गतियोंमें चिर काल तक परिभ्रमण करता हुआ, अब यह इस अन्ध पुरुषके अवतारके रूपमें पैदा हुआ है ।' समन्तभद्र सूरिके इस कथनको सुन कर उस अन्ध मनुष्यको जातिस्मरण ज्ञान हो आया और उस ज्ञानके प्रभावसे उसने अपने पूर्व जन्मके दुश्चरितके विलासको प्रत्यक्ष किया । तब उसको संवेगभाव उत्पन्न हुआ और वह बोला – 'भगवन् , आपने जो कहा है वह सब सत्य है । अब मुझे इस संसारसमुद्रसे पार करनेकी कृपा करो ।' ___ आचार्यने कहा- 'महानुभाव, हम तो वचनमात्रसे मोचक है । वयं तीर्थंकर भी दूसरेके किये हुए कर्मका क्षय नहीं करा सकते । जैसे जन्मान्तरमें तुमने गुरुका वचन नहीं मान्य किया वैसे अब भी मान्य नहीं करो तो मुझसे कैसे तुम्हारा निस्तार हो सकता है । गुरु तो अच्छे वैद्यकी तरह उपाय ही बतलाते हैं । वह उपाय अपनी अपनी भवितव्यतानुसार किसीको अच्छा लगता है किसीको नहीं ।' राजा- भगवन् , सभी प्रकारके संशयोंका निवारण करनेवाले ऐसे जिनवचनका जो आप उपदेश करते हैं क्या वह भी किसीको कभी अच्छा नहीं लग सकता है ?' . गुरुने कहा - 'महाराज, जो मिथ्यात्वमें मोहितमति हैं, दीर्घसंसारी हैं और कुग्रहसे गृहीत हैं उनको कहा गया जिनवचन भी, जैसे ज्वरपीडित मनुष्यको दूध अच्छा नहीं लगता वैसे, यथार्थरूपमें परिणत नहीं होता । इस विषयका का लि क श्रु त में एक आख्यान कहा गया है, उसे सुनाते हैं, सो सुनिये । सावद्याचार्यका आख्यान । _इसी भारत वर्षमें, अतीत कालकी कई अनन्तकालीन अवसर्पिणीयोंके पूर्व, एक हुंडा-अवसर्पिणी नामक कालमें होने वाले चौवीस तीर्थंकरोंके उत्पन्न हो जानेके बाद, अन्तिम तीर्थकरके तीर्थमें असंयत जनोंकी www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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