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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ९७ उत्तर में सूरिने कहा - 'भद्र, यह लोक कौन हैं ? | यदि 'पाषंडी लोक हमारे अपेक्षित लोक हैं' - ऐसा कहो, तो वे तो सब परस्पर विरुद्ध मतवाले हैं; अतः वे सर्वसम्मत ऐसा कोई कार्य कर ही नहीं सकते । यदि कहो कि 'जो गृहस्थ लोक हैं वे ही लोकव्यवहार के निदर्शक हैं' - तो वे भी नाना देशों में नाना प्रकार के आचार-विचारवाले हो कर परस्पर विरुद्ध व्यवहारवाले दिखाई देते हैं । अतः उनके आचरित धर्मका भी कैसे एकत्व हो सकता है । इसलिये तुम्हारा यह कथन किसी बातको सिद्ध नहीं करता । ' फिर इसके उत्तर में भानुने कहा - 'लोकसे तात्पर्य हमारा जैनधर्मके माननेवाले श्रावकजनसे हैं । उन्हीं को हम प्रमाण मानते हैं, औरोंको नहीं । इस दृष्टिसे हम कहते हैं कि जिसका तुम प्रतिषेध करते हो उसका व्यवहार तो बहुतों में दिखाई दे रहा है। क्या वे सब अनजान हैं ? । वे भी धर्मार्थी हैं और कहीं भी उन्होंने सुना या देखा होगा तब ही तो वे ऐसा कर रहे हैं न ? तो क्या हम उनकी प्रवृत्तिका समादर करें या तुम्हारे जैसे एकाकीके वचनका ?' सूरि बोले - 'भद्र, मेरा वा अन्य किसी छद्मस्थ मनुष्यका स्वतंत्र वचन कोई प्रमाणभूत नहीं होता । हम जो कहते हैं वह तो जिनवचनका अनुवाद मात्र है । हम अपनी ओरसे कुछ नहीं कह रहे हैं ।' जो कह रहे हैं वह स्वमतिविकल्पित है ? भी धर्मार्थी इसपर धवल बोला- 'तो क्या अन्य जन हैं और आगमहीका कथन करते हैं ।' सूरि बोले - 'क्या एक जिनशासन में भी आगम हैं, जो ऐसा कहा जाता है ? सर्वज्ञ अपने अपने अलग सर्वज्ञ हैं और अपने अपने अलग भिन्न भिन्न हो सकते हैं, परंतु उनमें परस्पर मतभेद तो संभव नहीं हो सकता । क्यों कि मतभेद तो मूढजनोंमें होता है और सर्वज्ञ तो मूढ़ नहीं है ।' धवलने उत्तर में कहा 'यह ठीक है कि सर्वज्ञोंमें मतभेद नहीं हो सकता, तथापि मतभेद वाली देशनायें जरूर दीखाई दे रहीं हैं । तो फिर हम जैसे छद्मस्थोंको यह कैसे ज्ञात हो कि यह तो जिनमतके अनुसार कह रहा है और यह उससे अन्यथा ? । इससे तो तुम्हारे मतसे ऐसा समझना होगा कि केवलज्ञान प्राप्त करके फिर श्रावक बनना चाहिये । और केवलिको तो स्वयं श्रावकधर्मके करनेका कोई प्रयोजन ही नहीं रहता । इससे तो यह भी सिद्ध हुआ कि केवली हुए विना उसके पहले किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये । और शुभ प्रवृत्तिके किये विना केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होता । सो यह तो विषम समस्या उपस्थित हो रही है । ' 1 - सूरिने समाधान करते हुए कहा- 'क्या सर्वज्ञ प्रणीत और छद्मस्थप्रणीत वचनोंमें किसी प्रकारका विशेषत्व ज्ञात नहीं किया जा सकता ? सर्वज्ञके वचनमें पूर्वापर विरोध नहीं होता और दूसरोंके वचन में वैसा होता है । यही इसमें भेद है ।' 1 धवल बोला- 'यदि ऐसा है तो तुम्हारे वचनमें हमको विरोध भासित हो रहा है । जो वचन बहुजन प्रवृत्तिके विरुद्ध है वह विरुद्ध ही है ।' इसपर सूरिने कहा - 'हम तो सर्वज्ञके वचनको दीपकस्थानीय मान कर उसका विचार कर रहे हैं, और तुम लोकाचारका कथन कर रहे हो; इससे मालूम देता है कि यह मिथ्यात्वमोहनीय कर्मका ही विलास है ।' तब भीमने कहा - 'तो क्या जीत व्यवहार ( आचरणा) अप्रमाण है ? ' सूरि - 'प्रमाण है; किन्तु तुम उसका लक्षण नहीं जानते ।' क० प्र० १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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