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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन-कथाकोश प्रकरण। जानती है, इस लिये कहती है कि वणिक् स्त्रियां ऐसे पायपोंछ बनाती हैं और मैं जो राजाकी अग्रमहिषी हूं उसे वह ओढनेको भी नसीब नहीं । परंतु यह सब उस सत्कर्मका फल है जो पूर्व भवमें किया गया है । धन्य हो तुम पुत्र, ऊठो जाओ।' शालिभद्र ऊठकर अपने स्थान पर गया। राजा भी ऊठा और जानेके लिये अपनी पालकीमें जा कर बैठा । तब भद्रा सेठानीने कुछ बढिया जातिके घोडे और हाथीके बच्चे मंगवा कर राजाको भेंट किये । तब राजाने कहा - 'रहने दीजिये इन्हें यहीं; और भी जो कोई वस्तु आवश्यक हो मुझे उसकी सूचना देना ।' भद्राने कहा - 'देव, यह बात ठीक ही है । महाराज तो सबकी चिंता करनेवाले हैं । किंतु यदि आप मेरी इस तुच्छ भेंटका स्वीकार नहीं करेंगे तो मेरे चित्तको शान्ति नहीं होगी; इसलिये कृपा करके इसका खीकार कीजिये । फिर राजाके मंत्रियोंने कहा कि- 'देव, इसका स्वीकार करना उचित है ।' तब आग्रहवश हो कर उसने उसका ग्रहण किया और वह अपने स्थान पर गया। शालिभद्रकी कथामें जिनेश्वर सूरिका किया गया यह वर्णन, उस मध्यकालीन भारतीय सामाजिक स्थितिका एक ऐसा तादृश चित्र हमारे सामने उपस्थित करता है जो मानों आंखों देखा जा रहा हो । जिनको बड़े-बड़े धनवानों और राजा-महाराजाओं द्वारा आधुनिक एवं युरोपीय पद्धतिसे दिये जानेवाले भोजन-समारंभोंका कुछ अनुभव होगा वे इस वर्णनकी वास्तविकताका ठीक आभास प्राप्त कर सकेंगे। सिंहकुमार नामक राजकुमारकी कथाका सार जैसा कि हम वर्तमान समयमें भी कुछ ऐसे सामाजिक प्रसंगोंकी घटनाएं देखते हैं जिनमें अपनी प्रियतमा स्त्रीके निमित्त, कभी कोई युवराज और कभी कोई सम्राट भी, अपनी राजगादीका त्याग कर कहीं प्रदेशान्तरोंमें चले जाते हैं और सामान्य नागरिककी तरह अपना दाम्पत्य जीवन व्यतीत करते हैं। वैसी ही कुछ घटनाएं कभी कभी प्राचीन भारतमें भी होती रहती थी जिसका एक उदाहरणरूप कथानक भी जिनेश्वर सूरिने प्रस्तुत ग्रन्थमें निबद्ध किया है ।। ___ यह कथानक इस प्रकार है- सीहकुमार नामका एक राजकुमार है जिसका सुकुमालिका नामक एक बहुत ही सुंदर और चतुर राजकुमारीके साथ पाणिग्रहण हुआ है; और दोनोंमें परस्पर अत्यंत ही प्रेम और स्नेहका उद्रेक है । राजकुमार बडा धर्मिष्ठ है और देव-गुरुकी उपासनामें रत रहता है । एक दिन कोई विशिष्ट ज्ञानी धर्माचार्य आते हैं जिनको वन्दना करनेके लिये राजकुमार जाता है। धर्माचार्यको अतिशय ज्ञानी जान कर राजकुमार पूछता है कि- 'भगवन् , मेरे पर मेरी पत्नी सुकुमालिकाका जो अत्यंत गाढ अनुराग रहता है वह क्या यों ही खाभाविकरूप है या किसी पूर्व जन्मका कोई विशेष स्नेहसंबंध उसमें कारणभूत है ?' इसके उत्तरमें सूरिने उसके पूर्व जन्मकी कथा कह सुनाई; जो इस प्रकार है इस भारतवर्षमें कौशाम्बी नगरीमें एक सालिवाहन नामक राजा हो गया जिसकी प्रियंवदा नामकी महादेवी थी । उनका ज्येष्ठ पुत्र तोसली नामक था। वह बडा उत्कृष्ट रूपवान् एवं रतिविचक्षण हो कर युवराज पद पर प्रतिष्ठित था। उसी कौशाम्बीमें धनदत्त नामका एक सेठ रहता था जिसकी नन्दा स्त्री और सुन्दरी नामक पुत्री थी। वह सुन्दरी अत्यंत रूपवती थी, परंतु उसका ब्याह वहींके एक सागरदत्त नामक सेठके पुत्र जसवर्द्धनके साथ किया गया जो शरीरसे बहुत ही कुरूप था। इससे सुन्दरीको वह पसन्द नहीं पडा । उसके दर्शनमात्रसे ही वह उद्विग्न हो जाती थी तो फिर संभोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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