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________________ ८० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वरसूरि । आदिकी तो बात ही कहां । इस तरह उसकी रसिक मनोवृत्ति नारककेसे दुःखका अनुभव किया करती थी, परंतु कुलमर्यादाके अंकुशके नीचे दबी हुई और कहीं पर जाने-आनेके प्रसंगसे वंचित रहती हुई वह अपना जीवन यों ही व्यतीत कर रही थी। ___ किसी समय उसका पति जसवर्द्धन, अनेक प्रकारका माल इकट्ठा करके परदेशमें व्यापार करनेके लिये जानेको उद्यत हुआ, तो उसने अपनी पत्नी सुन्दरीसे भी साथमें चलनेके लिये आग्रह किया । लेकिन वह तो उससे बहुत ही निर्विण्ण थी । नाम भी लेना सुनना पसन्द नहीं करती थी तो साथमें जानेकी तो बात ही कैसी ? उसने कहा- 'मेरा शरीर बिल्कुल ठीक नहीं है । पेटमें शूल ऊठा करता है, खानेमें कभी रुचि नहीं होती है, खाया हुआ हजम नहीं होता है और निद्राका तो सर्वथा नाश ही हो गया है । ऐसी हालतमें मैं कैसे तुम्हारे साथ चलूं ? यदि रास्तेमें ही मेरी मृत्युकी अपेक्षा हो तो मैं चलनेकी तैयारी करूं? ।' यह सब बात उसके सासु-ससुरने सुनी तो उन्होंने अपने पुत्रसे कहा कि- 'बेटा, बहुको यहीं रहने दो और तुम जा कर कुशलपूर्वक जल्दी वापस आओ।' यों जसवर्द्धन परदेश गया . और सुन्दरी वहीं रही। उसके जाने बाद सागरदत्त सेठने सोचा- पतिकी अनुपस्थितिमें इस बहुकी रक्षा करना दुष्कर-कार्य है। यदि कोई खराब काम करती दिखाई दी, तो कुछ कहने-सुनने पर कलहका कारण बनेगा और जसवर्द्धन भी आने पर इसकी विप्रतारणा करेगा। इससे यह अपने पिता धनदत्तके घर पर रहे तो अच्छा है । सेठने यह परामर्श अपनी स्त्रीसे भी किया और उसने भी इस विचारको पसन्द किया। फिर सेठने सुन्दरीके पिता धनदत्तको इस वृत्तान्तसे ज्ञात किया और कहलाया कि 'बहु अपनी माँके पास रह कर औषधि वगैरहका उपचार करावें तो अच्छा है; इसलिये इसको वहां बुला ली जाय । धनदत्तने कहा'हमारे लाड-प्यारके कारण तो थोडासा कुछ कहने पर भी यह रुष्ट हो जायगी । और तुम तो इसके अभिभावक हो इसलिये कुछ कठोर वचन कहोगे तो भी कोई अनुचित नहीं समझा जायगा और हमको उसमें कोई आपत्ति नहीं होगी । इसलिये यह तुम्हारे घर पर ही रहे सो अच्छा है।' इस पर सागरदत्त सेठने उसके रहने-करनेका प्रबन्ध अपने घरके ऊपरकी मंजिलमें कर दिया । वह सदा वहीं रहती है । दासीयां उसको वहीं स्नान भोजनादि कराती रहती हैं और वस्त्र पुष्पादि देती रहती हैं। इस तरह उसका समय व्यतीत हो रहा है । एक दिन दर्पण हाथमें लिये हुए मकानके झरोखेमें बैठ कर वह अपने केस संवार रही थी। इतनेमें अपने कुछ स्नेहाल मित्रोंके साथ राजकुमार तोसली उसी रास्तेसे हो कर, कहीं जानेको निकला । सुन्दरी और राजकुमारकी परस्पर दृष्टि मिली और एक-दूसरेकी ओर दोनोंके मनका आकर्षण हो कर अनुराग उत्पन्न हुआ। अपने मित्रके मुँहकी ओर देखते हुए राजकुमारके मुँहसे यह एक पुराणा सुभाषितरूप उद्गार निकला ___अनुरूप गुण और अनुरूप यौवन वाला मनुष्य जिसके पास नहीं है। उसके जीनेमें भी क्या स्वाद है-वह तो मरा हुआ ही है । ___ इसको सुन कर, अपने शरीरके मरोडको दिखलाती हुई सुन्दरीने भी, वह सुन सके इस तरह प्रत्युत्तरमें कहा जो पुण्यहीन होता है वह प्राप्त हुई लक्ष्मीको भी भोगना नहीं जानता, जिनमें साहस होता है वे ही पसई लक्ष्मीका उपभोग कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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