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________________ ७८ कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । ऐसा कैसे कर सकती हो ? राजा फिर पुष्करिणीमेंसे बहार निकला । फिर उसके शरीर को साफ करनेके लिये सुगंध काषायित चीजें उपस्थित की गईं । गोशीर्ष आदि विलेपनकी वस्तुएं लाई गईं । फिर पहरने के लिये बहुमूल्य वस्त्र समर्पित किये गये । इस समय सूपकार ( मुख्य रसोईया ) ने निवेदन किया कि - 'महाराज, चैत्यपूजाका अवसर हो गया है ।' तब वे फिर चौथी मंजिल पर उतर आये । वहांका चैत्यभवन खोला गया । उसमें मणि, रत्न, सुवर्ण आदिकी बनी हुई जिनप्रतिमाएं देखीं । राजाने मनमें कहा - अहो यह धन्य है जिसके यहां इस प्रकारकी चैत्यकी सामग्री है । उसको पूजाके उपकरण दिये गये । नाना प्रकारके पूजोपचार के साथ उसने चैत्यवंदन किया | फिर वह भोजनमंडपमें बैठा । पहले दाडिम, द्राक्षा, दंतसर, बेर, रायण आदि चर्वणीय पदार्थ उपस्थित किये गये, जिनमेंसे यथायोग्य ले कर राजाने अपना प्रसादभाव प्रकट किया। इसके बाद ईखकी गंडेरी, खजूर, नारंग, आम आदि चोष्य चीजें हाजर की गईं। उसके बाद, अनेक प्रकारके अच्छी तरह से तैयार किये गये चाटनयोग्य लेह्य पदार्थ लाये गये । फिर अशोक, वट्टीसक, सेवा, मोदक, फेणी, सुकुमारिका, घेवर आदि अनेक प्रकारके भोज्य पदार्थ पिरोसे गये । बादमें सुगन्धीदार चावल विरंज आदि लाये गये। फिर अनेक प्रकारके द्रव्योंके मिश्रण से बनाई हुई कढी रखी गई । उनका आखाद कर लेने पर वे भाजन ( वर्तन ) ऊठाये गये । पतगृह ( धातुकी कुंडी ) में हाथ धुलवाये गये । फिर नाना प्रकारकी दहीकी बनी हुई चीजें उपस्थित की गईं, जिनका यथोचित उपभोग किया । फिर वे भाजन ऊठाये गये और हाथ साफ कराये गये । बादमें आधा ओंटा हुआ दूध जिसमें शक्कर, मधु और केसर आदि डाले गये थे, दिया गया । उसके बाद आचमन कराया गया । दाँत साफ करनेके लिये दन्तशलाकाएं दी गई । दाँतोंको निर्लेप करनेके निमित्त सुगंधि उद्वर्तन रखा गया । किंचिदुष्ण पानी द्वारा फिर हाथ धुलाये गये, जिससे अन्नादिकी गन्ध चली गई। फिर हाथों को मलनेके लिये सुगन्ध काषायित वस्तुएं उपस्थित की गईं । वहांसे ऊठ कर फिर राजा एक दूसरे मंडपमें जा कर बैठा । वहां पर विलेपन, पुष्प, गन्ध, माल्य और तांबूल आदि चीजें दी गईं । मनोरंजनके लिये विदग्ध ऐसे गायनों द्वारा वादन आदिकी सामग्री साथ, प्रेक्षणक ( नाटकादि नृत्य वगैरह ) का प्रारंभ हुआ । राजाने कहा 'शालिभद्रको देखना चाहते हैं ।' भद्रा बोली - 'आ जायगा ।' वह फिर उपर छठवीं मंजिलमें गई । शालिभद्रने, मांको आती देख खडे हो कर, स्वागत किया । पूछा - 'मां ! आप क्यों आई हैं ?' मांने कहा - 'बेटा, चौथी मंजिल पर चलो, श्रेणिक को देखो ।' शालिभद्रने कहा - 'मां यह तो सब तुम ही जानती हो कि महंगा है या सोंगा है । जैसे ठीक लगे ले लो ।' मांने कहा- 'जात, वह कोई किराना = माल नहीं है, किंतु तुम्हारा स्वामी राजा श्रणिक है । वह तुझको देखनेकी उत्कंठासे घर पर आया है ।' सुन कर शालिभद्र आश्चर्यान्वित हो कर बोला- 'मेरा भी कोई खामी है ?' फिर माताके आग्रह से वह नीचे उतरा । देवकुमार जैसे सुंदर खरूपवाले कुमारको देख कर राजाने उसे अपनी भुजाओंसे ऊठा लिया और फिर अपनी गोद में बिठाया । क्षणभर बाद ही माता भद्राने कहा कि - 'देव, इसे जानेकी आज्ञा दीजिये ।' राजाने पूछा - 'क्या कारण ?' भद्रा - 'देव, यह मनुष्योंके गन्ध माल्य आदिके गन्धको सहन नहीं कर सकता । क्यों कि प्रतिदिन इसको देवता ही दिव्य प्रकारके विलेपन, पुष्प, गन्ध आदि देते हैं; खानेके लिये भी वैसे ही दिव्य प्रकारके फलादि और पीनेका पानी भी वैसा ही उनके द्वारा आता है । एक बार पहने हुए वस्त्र फिर कभी दुबारा नहीं पहने जाते । अतः इसे जाने दीजिये ।' राजाने कहा - 'यह सब चेलना ( रानी ) नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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