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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थों का विशेष विवेचन - कथाकोश प्रकरण । ७७ प्रवेश करने पर, पहली मंज़िलमें कीमती चीजोंके भंडारको देखा । दूसरी मंजिल में दास और दासी जनोंके खाने-पीनेकी सामग्री और रहनेकी व्यवस्था देखी । तीसरी मंजिलमें स्वच्छ और सुन्दर वस्त्रोंसे सज्जित रसोई बनानेवाले पाचक जनोंको, नाना प्रकारकी रसोईकी तैयारी करते देखे । वहीं एक तरफ, पानकी थैली रखनेवाले नोकर जनमें से कोई सुपारी कतर रहेथे तो कोई पानका बीडा बनाकर उनमें केसर कस्तूरी और घनसारके सुवासित पुट लगा रहे थे । चौथी मंजिल में सोने-बैठने और भोजन करनेकी शालाएं (दालान ) और उनके पासके अपवरकों ( ओरडों = कोठों ) में नाना प्रकार के भांडागार देखे । वहीं पर राजाके बैठनेका आसन बिछाया गया । सुखासन पर बैठते हुए राजाने पूछा - 'शालिभद्र कहां है ? ' सेठानीने कहा - 'महाराज, जितनेमें आपका स्वागतोपचार हो जायगा उतनेमें वह भी आ जायगा । इसलिये महाराज स्नान - भोजनादिके करनेकी कृपा करें ।' राजाने सेठानीके उपरोधसे वह प्रस्ताव स्वीकार किया । रानी चेलनाको एक चित्र-विचित्र मंडपमें बिठाई गई । वहां पर विलासिनी स्त्रियोंको बुलाई गईं और उनको सुगंधित ऐसे निर्माल्य की सामग्री दी गई। उन्होंने रानीका अभ्यंग और उद्वर्तन आदि किया । वैसे ही राजाके लिये किया गया। बाद में वे पांचवीं मंजिलपर चढे । वहां उन्होंने सब ऋतुओंमें खिलनेवाले फूलों से लदे हुए पुन्नाग, नाग, चंपक आदि सेंकडों ही प्रकारके पुष्पवृक्ष और लताओंसे संकुल ऐसा, नंदनवन के जैसा, सुन्दर कानन ( बगीचा ) देखा । उसके मध्य भागमें एक क्रीडा - पुष्करिणी ( स्नानकरने की जलवापिका) देखी, जिसके उपरका भाग ढंका हुआ हो कर कहीं पर चंद्र-सूर्यका प्रकाश भी बिल्कुल नहीं दीख पडता था; परंतु आस-पास भीतोंमें, स्तंभों में और छज्जोंमें लगे हुए पांचों प्रकारके रंग फैलानेवाले रत्नोंके प्रकाशसे जो चकचकित हो रही थी । किलीका ( नटबोल्ट ) के प्रयोगद्वारा जिसका पानी अन्दर लिया जाता तथा बहार निकाला जाता था । चंद्रमणिसे जिसकी आसपासकी वेदी बनाई गई थी। चारों तरफ तोरण लगे हुए थे और इस तरह वह देवताओंके लिये भी प्रार्थनीय वस्तु थी । राजा अपनी रानीके साथ उसमें नहानेके लिये उतरा । उसके जलके तरंगों के हिल्लोलोंसे कमी रानी अपने स्तनके भारको न संभाल सकनेके कारण खींच कर राजाकी तरफ चली जाती थी और कभी राजा मी देवीके उछाले हुए पानीके धक्कोंसे खींच कर रानीकी तरफ चला आता था । राजाके ऊछाले हुए पानीके जोरसे कभी रानीका उत्तरीय वस्त्र खिसक कर उसके नितंबोंसे लिपट जाता था और फिर कभी वहां से हट कर स्तनोंसे चिपक जाता था । कभी राजा रानीको कमल कोरकों से आहत करता था तो कमी रानी राजा को । फिर राजाने एक दफह पानीको ऐसे जोरसे ऊछाला कि जिसके धक्को न सह सकनेके कारण रानी उत्रस्त हो कर एकदम राजाको आ कर लिपट गई । इस प्रकार अच्छी तरह जलक्रीडा करके वे दोनों फिर स्वस्थ हुए । इस जल क्रीडा के समय राजाकी अंगुलीमेंसे एक बहुमूल्य मुद्रिका गिर कर पानी में पड गई । राजा इधर-उधर पानीमें देखने लगा, पर पता नहीं लगा । फिर भद्रासे पूछा कि इस मुद्रारत्नका कैसे पता लगेगा ? भद्राने अपनी दासीसे उस क्रीडा वापीके पानीको निकलवा कर, एकदम खाली करवाई तो उसमें एक जगह कोयले से रंगसे काला पडा हुआ वह मुद्रारत्न राजाको दृष्टिगोचर हुआ । राजाने तुरन्त हाथ डाल कर उसे ऊठाना चाहा, तब भद्राने कहा 'देव, बहुओंके निर्माल्यसे यह मुद्रिका मैली हो गई है; आप इसको न छुए।' फिर उसने अपनी दासीको आज्ञा दी कि मुद्रिकाको अच्छी तरह साफ़ कर महाराजाको समर्पण करे । राजाने रानीके मुंहकी ओर देखा और कहा 'तुम बनियोंकी बहुओंके प्रायपोंछके रूपमें काममें आते हैं वे मुझे ओढनेको मी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only कहती थीं कि जो कंबल मिलते ! । यह देखा, www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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