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________________ ७० कथाकोष प्रकरण और जिनेश्वर सूरि । मनोरंजक कृति थी। इस कथाका ९ वी १० वीं शताब्दीमें लिखा गया एक संक्षिप्त सार-भाग मिलता है जिसका जर्मनीके खर्गवासी महापण्डित प्रो. लॉयमानने जर्मन भाषामें सुन्दर भाषान्तर किया और उस परसे हमने गुजराती अनुवाद करा कर, 'जैन साहित्यसंशोधक' नामक त्रैमसिक पत्रमें उसे प्रकाशित किया है । पादलिप्त सूरिकी कथाशैली कैसी थी उसकी कुछ कल्पना विज्ञ पाठकोंके इसके पढनेसे हो सकेगी । इस प्रकारके कथावर्गमें हरिभद्र सूरिकी 'समरादित्य कथा' दाक्षिण्यचिन्ह उद्योतन सूरिकी 'कुवलयमाला कथा,' विजयसिंह सूरिकी 'भुवनसुन्दरीकथा' आदि अनेक मुख्य ग्रन्थ हैं । जिनेश्वर सूरिकी यह 'निवोणलीलावती' कथा भी इसी कथावर्गकी एक कृति है। निर्वाणलीलावती कथासारका संक्षिप्त परिचय । इस कथाके वर्णनके पढनेसे ज्ञात होता है कि जिनेश्वर सूरिने उद्योतनसूरिकी कुवलयमाला कथाका कुछ अनुकरण किया है । कुवलयमालामें क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह इन दुर्गुणोंके विपाकोंका वर्णित करनेकी दृष्टिसे कथावस्तुकी संकलना की गई है। इसी तरह इस कथामें भी इन्हीं दुर्गुणोंके साथ हिंसा, मृषा, चौरी, व्यभिचार, परिग्रह आदि पापोंके सहकारका संबन्ध मिलने पर उनके विपा. कोंका फल कैसा कठोर मिलता है इस वस्तुको लक्ष्य कर सारी कथा संकलना की गई है। इसके कथासूत्रको, संक्षिप्तकर्ता जिनरत्न सूरिने अपने उक्त संक्षेपमें, निम्न रूपसे दो पद्योंमें प्रकट किया है कौशाम्ब्यां विजयादिसेननृपतिश्चास्योत्तमांगं किल __श्रेष्ठिश्रीसचिवौ पुरंदरजयस्पृक्शासनौ दोलेते । शूरश्चापि पुरोहितो हृदयभूः सौभाग्यभंग्याद्भुतो___ऽध:कायो धनदेवसार्थप इमे श्रीमत्सुधर्मप्रभोः॥१ पादाभोरुहि रामदेवचरिताधाकर्ण्य दीक्षाजुषा सौधर्मे त्रिदशा बभूवुरुदयनिस्सीमशर्मप्रियाः । ते श्रीसिंहनृपादितामुपगताः श्रीनेमितीर्थेऽसिधन् संक्षिप्येति कथांगनांगभणितिर्विस्तार्यते श्रूयताम् ॥ २ कथाका उपक्रम इस तरह किया गया है मगधदेशके राजगृह नगरमें सिंह नामका राजा और उसकी रानी लीलावती, एक जिनदत्त नामक श्रावक मित्रके संसर्गसे जैन धर्मके प्रति श्रद्धाशील बनते हैं । जिनदत्तके धर्मगुरु समरसेन सूरि कमी परिभ्रमण करते हुए राजगृहमें आते हैं, तब राजा और रानी, जिनदत्तके साथ आचार्यके पास धर्मोपदेश सुननेको जाते हैं । आचार्यके अप्रतीम रूपसौंदर्य और ज्ञानसामर्थ्यको देख कर राजाके मनमें, उनकी पूर्वावस्थाकै वरूपको जाननेकी इच्छा होती है और वह उनसे उस विषयमें अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है । आचार्य पहले तो कहते हैं कि 'सत्पुरुषोंको अपने आचरणके बारेमें कुछ कहना उचित नहीं होता है । तथापि तुमको इससे बहुत कुछ आत्मलाभ होनेकी संभावनासे मैं अपने जन्म-जन्मांतरोंकी बातें विस्तारसे कहता हूं, जिनको ध्यानपूर्वक सुनना।' इस प्रकार प्रस्तावनाखरूप प्रथम उत्साहकी समाप्ति होती है और दूसरे उत्साहमें कथाका पूर्व वृत्तान्त शुरू होता है। १ यहां पर संक्षिप्त कथाका पहला उत्साह समाप्त होता है। इस उत्साहकी समाप्तिसूचक पुष्पिका इस प्रकार है - "इति श्रीवर्द्धमानसूरिशिष्यावतंसवसतिमार्गप्रकाशकप्रभुश्रीजिनेश्वरसूरिविरचितप्राकृत-श्रीनिर्वाणलीलावती- . महाकथेतिवृत्तोद्धारे लीलावतीसारे जिनाङ्के श्रीसिंहराजजन्म-राज्याभिषेक-धर्मपरीक्षा-श्रीसमरसेन सुरिसमागमव्यावर्णनो नाम प्रथमः प्रस्ताबनोत्साहः । ग्रंथान ३३९॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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