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________________ जिनेश्वरीय ग्रन्थोंका विशेष विवेचन । यह वृत्तान्त इस प्रकार है - वत्सदेशकी कौशांबी नगरीमें विजयसेन नामक राजा, उसका जयशासन नामक मंत्री, सूर पुरोहित, पुरंदर श्रेष्ठी और धन सार्थपति ये पांच व्यक्ति परस्पर मित्र भावसे अपना व्यावहारिक जीवन सुखरूपसे व्यतीत करते हैं। किसी समय एक सुधर्म नामक जैन श्वेतांबराचार्य उस नमें आते हैं जिनके दर्शनके लिये ये पांचों जीव श्रद्धापूर्वक जाते हैं और उनका धर्मोपदेश श्रवण करते हैं । आचार्य मोक्षमार्गका उपदेश करते हुए जीवके संसारमें परिभ्रमणका और नाना प्रकारके दुःखोंके अनुभागी बननेका कारण पांच आश्रव, पांच मोहकषाय और पांच इन्द्रियोंका परिणाम बतलाते हैं । कहते हैं कि - इन्द्रियैर्विजितो मोहकषायैजीयतेऽसुमान् । ततः प्राणातिपातादौ सक्तो ज्ञानादि हारयेत् ॥ अर्थात् इन्द्रियोंके वश हो कर प्राणी मोह कषायोंसे पराभूत होता है और फिर प्राणातिपातादि रूप हिंसादि पापोंमें प्रवृत्त हो कर अपने ज्ञानखरूपको खो बैठता है । इसके बाद आचार्य हिंसा और क्रोध, मृषा और मान, चौरी और कपट, मैथुन और मोह एवं परिग्रह और लोभ - इन पांच आश्रव और कषायोंके युग्मभावोंका स्वरूप वर्णन करते हैं और प्रत्येक युग्मके विपाकका फल, जीवको कैसा दुःखदायक और जन्म-जन्मांतरोंमें रुलानेवाला होता है इसके उदाहरण रूपमें, एक-एक व्यक्तिकी अलग-अलग कथा कहते हैं । इस प्रकार दूसरे प्रस्तावमें, हिंसा और क्रोध के उदाहरण खरूप, एक रामदेव नामक राजपुत्रकी कथा कही गई है; तीसरे प्रस्तावमें, मृषा और मानके उदाहरणमें, एक सुलक्षण नामक राजपुत्रकी; चौथे उत्साह में, चौरी और कपट युग्मके उदाहरणमें, वसुदेव नामक वणिक्पुत्रकी; पांचवें उत्साह में, मैथुनासक्ति और मोहके युग्मभावके उदाहरण में, वज्रसिंह नामक राजकुमारकी; और छठे उत्साह में, परिग्रह और लोभ के द्वंद्वभाव के दृष्टान्तस्वरूप, कनकरथ नामक राजपुत्रकी कथा कही गई है । इसी तरह फिर स्पर्श, रसना आदि पांचों इन्द्रियोंकी आसक्तिके विपाकका परिणाम बतलानेकी दृष्टिसे आगे के पांच उत्साहोंमें पांच भिन्न भिन्न व्याक्तियोंकी कथाएं कही गई हैं । इनमें स्पर्शेन्द्रिके विपाक वर्णन स्वरूपकी प्रथम कथा, इसी राजा विजयसेनके निजके पूर्व जन्मके संबंधकी है, जो सुधर्म सूरिके सन्मुख उपस्थित प्रधान श्रोता है । - इसी तरह फिर रशनेंद्रियके उदाहरणमें, राजमंत्री जयशासनके पूर्व जन्मकी; घ्राणेन्द्रियके खरूपकथनमें, राजश्रेष्ठी पुरंदर के पूर्वजन्मकी; चक्षुरिन्द्रियके विकार - वर्णनमें, धन सार्थपके पूर्वजन्मकी; और श्रवणेन्द्रियकी आसक्तिके विपाकवर्णनमें, शूर पुरोहितके जन्म-जन्मांतर की कथा कही गई है । सुधर्म सूरिके मुखसे इस प्रकारका धर्मोपदेश सुन कर उन दसों व्यक्तियों को अपने अपने पूर्व जन्मकी स्मृतिका ज्ञान हो जाता है और फिर वे सब विरक्तचित्त हो कर सुधर्म सूरिके पास दीक्षा ले कर यथाशक्ति ज्ञानोपासना और तपः सेवन में जीवन व्यतीत करते हैं । अन्तमें मर कर वे सब सौधर्म नामक स्वर्गमें देवभवको प्राप्त होते हैं । वहां पर वे दसों देव, परस्पर मित्रके रूपमें होते हैं और अपना देवजीवन पूर्ण करके फिर इसी भारतवर्ष में अलग अलग स्थानोंमें मनुष्यजन्म धारण करते हैं । उन्हीं दशों जीवोंमेंसे, उक्त रसनेन्द्रियके विपाकवर्णन में जिस जयशासन मंत्रीकी कथा कही गई है उसीका जीव इस मनुष्य जन्ममें मलयदेशके कुशावर्तपुरमें जयशेखर राजाके पुत्र के रूपमें जन्म लेता है। जिसका नाम समरसेन रखा जाता है । राजकुमार पूर्वजन्म के कुछ कुसंस्कारोंके कारण बडा आखेटक व्यसनी बन जाता है और सदैव मृगयासक्त हो कर प्राणिहिंसामें प्रवृत्त रहता है । उसके पूर्वभवका मित्र सूर पुरोहितका जीव जो देवभव में विद्यमान है वह आ कर उसे प्राणिहिंसा से निवृत्त हानेका प्रतिबोध देता है। उससे प्रतिबुध्द हो कर कुमार समरसेन धर्मनन्दन नामक गुरुके पास दीक्षा ले कर, क्रमसे Jain Education International ७१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016066
Book TitleKathakosha Prakarana
Original Sutra AuthorJineshwarsuri
Author
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1949
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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