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________________ कुंकुम व्रत कथा ४५१ नाम धनवती था। सभी प्रकारकी सुख सम्पदाओंसे युक्त होनेसे उनका समय बड़ा आनन्द पूर्वक व्यतीत हो रहा था, परन्तु उनके कोई पुत्र नहीं था, इस एक ही चिन्तासे वे खिन्न और चिंतित रहा करते थे । एक दिन श्री देशभूषण मुनि ( अवधिज्ञानी ) अनेक देश व प्रान्तों व नगरों में विहार कहते हुए इसी नगरके सहस्रकूट चैत्यालय में पधारे । मुनिराजका आगमन जानकर सभी नगरके निवासी अपने शक्ति प्रमाण पूजा द्रव्य लेकर गुरु दर्शनार्थ उनके निकट चैत्यालय में गये, धनवती सेठानी भी नहा धोकर भक्ति भावसे, चैत्यालय गई वहाँ पर जिनप्रतिमाका अभिषेक करके, अष्ट द्रव्योंसे प्रभुको पूजन को, फिर गुरु महाराजका दर्शन करके, हाथ जोड़ कर विनम्र शब्दोंसे मुनिराजसे बोली - हे मुनिवर, पुत्र के अभाव में मेरा यह मनुष्य जन्म व्यर्थ एवं निस्सार है, यद्यपि मुझे सर्व प्रकार की भोग उपभोगकी सामग्री यथेष्ठ मिली है, फिर भी यह अटूट सम्पत्ति एक पुत्रके नहीं होने से, मुझे व मेरे मनको पूर्ण शान्ति प्रदान नहीं कर सकती, हमेशा, कुल परम्पराको चलानेवाले पुत्र के अभावसे मनमें महान् आताप बना रहता है, प्रभो कौनसे ऐसे पापकर्मका उदय है, जिसके कारण सभी सुख सामग्रोके होते हुए भी, मैं पुत्रवती नहीं हुई । करुणासागर मुनिराज उसकी इस प्रकार विनम्रवाणीको सुनकर दयार्द्र होकर बोले- पुत्री, मनुष्य जैसे अच्छे व बुरे कार्य करता है, उसी का प्रतिफल हो उसे सुख, दुःख रूपमें मिलता है । तूने भी पूर्व भव में, एक बार, जब मुनिराज चर्या कर निकले थे, तब उनका आदर नहीं किया तूं गर्वसे गर्वित होकर उनके प्रति उदासीन रही और यह उसी पापका फल है, कि इस जन्म में अटूट सम्पत्ति प्राप्त होने पर भी, तू पुत्रवतो नहीं हुई, जिसके कारणसे तुम्हारे हृदय में बैचेनी है और हमेशा अशान्तता बनी रहती है । था, विनम्र वचनोंसे मधुर वाणी में धनवती सेठानीने अपने किये हुए पापोंके प्रायश्चित के लिये तत्परता दिखाते हुए मुनिराज से प्रार्थना की, प्रभो अनेक बड़े-बड़े अपराध गुरुओं के दर्शन मात्रसे शान्त हो जाते हैं मुझे भी आप कोई ऐसा व्रत बताइये जिससे मेरे किये हुए अपराध दूर होवें और मुझे पुत्र रत्नकी प्राप्ति हो, और में अपने जीवनको सफल बना सकूँ । मुनिराज बोले, धर्म ही मनुष्यको सुखमें पहुँचाता है, आत्मिक सुखोंकी वृद्धि भो उसी से है ऐसी कोई भी अप्राप्य वस्तु नहीं जो मनुष्य को धर्म सेवनसे न प्राप्त हो । सांसारिक सुखों की तो बात ही क्या अत्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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