SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधना कथाकोश वे प्रभाचन्द्राचार्य विजय लाभ करें, जो ज्ञानके समुद्र हैं। देखिये, समुद्र रत्न होते हैं, आचार्य महाराज सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्नको धारण किये हैं । समुद्र में तरंगें होती हैं, ये भी सप्तभंगी रूपी तरंगोंसे युक्त हैंस्याद्वादविद्याके बड़े ही विद्वान् हैं। समुद्रको तरंगें जैसे कूड़े-करकटको निकाल बाहर फेंक देती हैं, उसी तरह ये अपनी सप्तभंगी वाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकटको हटा दूर करते थे, अन्य मतके बड़े-बड़े विद्वानोंको शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय लाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ, घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं, पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष रूपी भयानक मगरमच्छ न थे । समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिन भगवान्का वचनमयी अमृत समाया हुआ था । और समुद्र में अनेक बिकने योग्य वस्तुएँ रहती हैं, ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होनेवाली पुण्यरूपी विक्रेय वस्तुको धारण किये थे । अतएव वे समुद्रकी उपमा दिये गये । ४५० इन्हींके पवित्र चरणकमलोंकी कृपासे जैनशास्त्रोंके अनुसार मुझ नेमिदत्त ब्रह्मचारोने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपके प्राप्त करनेवालोंकी इन पवित्र पुण्यमय कथाओंको लिखा है । कल्याणकी करनेवाली ये कथाएँ भव्यजनों को धन-दौलत, सुख-चैन, शान्ति - सुयश और आमोद-प्रमोद आदि सभी सुख सामग्री प्राप्त कराने में सहायक हों । यह मेरी पवित्र कामना है । कु कुमन्त्रत कथा इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्रके एक सुरम्य देश में राजधानी थी । वहाँ भूपाल नामका राजा राज्य मनोहरा नामकी रानी थी। उनके राज्यमें सभी प्रजा भरमें शान्ति व अमन चैन था। सभी अपने धर्म व कर्तव्यों का पालन हस्तिनापुर नामकी करता था । उसके सुखी थी, राज्य करते थे । उसी नगरी में धनपाल नामका एक सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy