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________________ ४४२ आधना कथाकोश हुए रथनूपुरमें नील और महानील नामके दो राजे हो गये हैं । शत्रुओंके साथ युद्ध में उनकी विद्या, धन, राज्य वगैरह सब कुछ नष्ट हो गया। तब वे इस मलय पर्वत पर आकर बसे । यहाँ वे कई वर्षों तक आरामसे रहे । दोनों भाई बड़े धर्मात्मा थे । उन्होंने यह लयण बनवाया। पुण्यसे उन्हें उनकी विद्याएँ फिर प्राप्त हो गईं। तब वे पीछे अपनी जन्मभूमि रथनूपुर चले गये । इसके बाद कुछ दिनों तक वे दोनों और गृह-संसारमें रहे। फिर जिनदीक्षा लेकर दोनों भाई साधु हो गये। अन्त में तपस्याके प्रभावसे वे स्वर्ग गये।" इस प्रकार सब हाल सनकर बड़ा भाई अमितवेग तो उसी समय दोक्षा लेकर मुनि हो गया और अन्तमें समाधिसे मरकर ब्रह्मोत्तर स्वगंमें महद्धिक देव हुआ। और सुवेग-अमितवेगका छोटा भाई आर्तध्यानसे मरकर यह हाथी हुआ। सो ब्रह्मोत्तर स्वर्गके देखने पूर्व जन्मके भातृ-प्रेमके वश हो, आकर इसे धर्मोपदेश किया, समझाया। उससे इस हाथीको जातिस्मरण ज्ञान हो गया। इसने तब अणवत ग्रहण किये। तब होसे यह इस प्रकार शान्त रहता है और सदा इस बाँवीकी पूजन किया करता है । तुमने बाँवी तोड़कर जबसे उसमें से प्रतिमा निकाल ली तब हीसे हाथी संन्यास लिये यहीं रहता है। और राजन्, आप पूर्वजन्ममें इसी तेरपुरमें ग्वाल थे। आपने तब एक कमलके फूल द्वारा जिन भगवान्को पूजा की थी। उसीके फलसे इस समय आप राजा हुए हैं। राजन्, यह जिनपूजा सब पुण्यकर्मों में उत्तम पुण्यकर्म है यही तो कारण है कि क्षणमात्रमें इसके द्वारा उत्तमसे उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार करकण्डुको आदिसे इति पर्यन्त सब हाल कहकर और धर्म प्रेमसे उसे नमस्कार कर नागकुमार अपने स्थान चला गया । सच है यह पुण्य हीका प्रभाव है जो देव भी मित्र हो जाते हैं। हाथीको संन्यास लिये आज तीसरा दिन था । करकण्डुने उसके पास जाकर उसे धर्मका पवित्र उपदेश किया। हाथी अन्त में सम्यक्त्व सहित मरकर सहस्रार स्वर्ग में महद्धिक देव हुआ। एक पशु धर्मका उपदेश सुन कर स्वर्गमें अनन्त सुखोंका भोगनेवाला देव हुआ, तब जो मनुष्य जन्म पाकर पवित्र भावोंसे धर्म पालन करें तो उन्हे क्या प्राप्त न हो ? बात यह है कि धर्मसे बढ़कर सुख देनेवाली संसारमें कोई वस्तु है हो नहीं। इसलिए धर्मप्राप्तिके लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। करकण्डुने इसके बाद इसी पर्वत पर अपने, अपनी माँके तथा बालदेवके नामसे विशाल और सुन्दर तीन जिनमन्दिर बनवाये, बड़े वैभवके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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