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________________ करकण्डु राजाकी कथा ४४१ I संभवतः इसकी रक्षा के लिए यह प्रयत्न किया गया हो। इसलिए मेरी समझ में इसका तुड़वाना उचित नहीं । करकण्डुने उसका कहा न माना । उसे उसकी बात पर विश्वास न हुआ । उसने तब शिल्पकारसे बहुत आग्रह कर आखिर उसे तुड़वाया ही । जैसे ही वहाँ गाँठ टूटी उसमें से एक बड़ा भारी जल-प्रवाह बह निकला । मन्दिरमें पानी इतना भर गया कि करकण्डु वगैरहको अपने जोवनके बचनेका भी सन्देह हो गया । तत्र वह जिनभक्त उस प्रवाहके रोकने के लिए संन्यास ले कुशासन पर बैठ कर परमात्मा का स्मरण चितन करने लगा। उसके पुण्य-प्रभावसे नागकुमारने प्रत्यक्ष आकर उससे कहा- राजन्, काल अच्छा नहीं, इसलिए प्रतिमाकी सुरक्षा के लिए मुझे यह जलपूर्ण लवण बदाना पड़ा। इसलिए आप इस जलप्रवाहके रोकनेका आग्रह न करें। इस प्रकार करकण्डुको नागकुमार ने समझा कर आसन परसे उठ जानेको कहा । करकण्डु नागकुमारके कहने से संन्यास छोड़ उठ गया । उठकर उसने नागकुमारसे पूछा- क्योंजो, ऐसा सुन्दर यह लवण यहाँ किसने बनाया और किसने इस बाँवी में इस प्रतिमाको विराजमान किया ? नागकुमार ने कहा - सुनिए, विजयार्द्ध पर्वतको उत्तर श्रेणी में खूब सम्पत्तिशाली नभस्तिलक नामका एक नगर था । उसमें अमितवेग और सुवेग नामके दो विद्याधर राजे हो चुके हैं। दोनों धर्मज्ञ और सच्चे जिनभक्त थे। एक दिन वे दोनों भाई आर्य खण्ड के जिनमन्दिरों के दर्शन करनेके लिए आये। कई मन्दिरों में दर्शन-पूजन कर वे मलयाचल पर्वत पर आये । यहाँ घूमते हुए उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान्की इस रत्नमयो प्रतिमाको देखा । इसके दर्शन कर उन्होंने इसे एक सन्दूक में बन्द कर दिया और सन्दूकको एक गुप्त स्थान पर रखकर वे उस समय चले गये। कुछ समय बाद वे पोछे आकर उस सन्दूकको कहीं अन्यत्र ले जानेके लिए उठाने लगे पर सन्दूक अबकी बार उनसे न उठी । तब तेरपुर जाकर उन्होंने अवधिज्ञानी मुनिराज से सब हाल कहकर सन्दूकके न उठनेका कारण पूछा। मुनिने कहा - "सुनिए, यह सुखकारिणी सन्दूक तो पहले लयणके ऊपर दूसरा लण होगो । मतलब यह कि यह सुवेग आर्तध्यानसे मरकर हाथी होगा । वह इस सन्दूक की पूजा किया करेगा । कुछ समय बाद करकण्डु राजा यहाँ आकर इस सन्दूकको निकालेगा और सुवेगका जीव हाथी तब संन्यास ग्रहण कर स्वर्ग गमन करेगा। इस प्रकार मुनि द्वारा इस प्रतिमाकी चिरकाल तक अवस्थिति जानकर उन्होंने मुनिसे फिर पूछा- तो प्रभो, इस लयणको किसने बनाया ? मुनिराज बोले- इसी विजयार्धको दक्षिण श्रेणी में बसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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