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________________ करकण्डु राजाको कथा था। इसलिए राजाने उसे एक सन्दूकमें रखकर और उसके नामकी एक अंगूठी उसकी उँगली में पहरा कर उस सन्दूकको यमुनामें छुड़वा दिया । सन्दूक बहती हुई कुसुमपुरके एक पद्महृद नामके तालाब में पहुंच गई। इस तालाब में गंगा-यमुनाके प्रवाहका एक छोटा-सा नाला बहकर आता था। उसी नाले में पड़कर यह सन्दक तालाबमें आ गई। इसे किसी कुसुमदत्त नामके मालीने देखा । वह निकाल कर उसे अपने घर लिवा लाया। संदूकको खोलकर उसने देखा तो उसमें से यह लड़की निकली। कुसुमदत्तके कोई संतान न थी । इसलिये वह इसे पाकर बहुत खुश हुआ। अपनी स्त्रोको बुलाकर उसने इसे उसको गोदमें रख दिया और कहाप्रिये, भाग्यसे अपनेको यह लड़की अनायास मिल गई। इससे अपनेको बड़ी खुशी मनानी चाहिये। मुझे विश्वास है कि तुम भी इस अमूल्य संधिसे बहुत प्रसन्न होगी। प्रिये, यह मुझे पहृदमें मिली है। हम इसका नाम भी पद्मावती ही क्यों न रक्खें ? क्यों, नाम तो बड़ा ही सुन्दर है ! मालिन जिन्दगी भरसे अपनी खाली गोदको आज एकाएक भरी पा बहुत आनन्दित हुई। वह आनन्द इतना था कि उसके हृदयमें भी न समा सका । यही कारण था कि उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। उसने बड़े प्रेमसे इसे छाती लगाया। पद्मावती इस समय कोई तेरह चौदह वर्षको है। उसके सूकोमल, सुगन्धित और सुन्दर यौवनरूपी फूलकी कलियाँ कुछ-कुछ खिलने लगी हैं । ब्रह्माने उसके शरीरको लावण्य सुधा-धारासे सोंचना शुरू कर दिया है । वह अब थोड़े ही दिनोंमें स्वर्गकी देव कुमारियोंसे भी अधिक सुन्दरता लाभ कर ब्रह्माको अपनी सृष्टिका अभिमानी बनावेगी। लोग स्वर्गीय सुन्दरताको बड़ी प्रशंसा करते हैं। ब्रह्माको उनकी इस थोथो तारीफसे बडी डाह है। इसलिये कि इससे उसकी रचना सुन्दरतामें कमी आतो है और उस कमोसे इसे नीचा देखना पड़ता है। ब्रह्माने सर्व साधारणके इस भ्रमको मिटानेके लिए कि जो कुछ सुन्दरता है वह स्वर्ग ही में है, मानो पद्मावतीको उत्पन्न किया है। इसके सिवा इन लोगोंको झठी प्रशंसासे जो अमरांगनाएँ अभिमानके ऊँचे पर्वत पर चढ़कर सारे संसारको अपनी सुन्दरता को तुलनामें ना-कुछ चीज समझ बैठी हैं, उनके इस गर्वको चूर-चूर करना है । इन्हीं सब अभिमान, ईर्षा, मत्सर आदिके वश हो ब्रह्मा पद्मावतीको त्रिभुवन-सुन्दर बनाने में विशेष यत्नशील हैं । इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि पद्मावती कुछ दिनों बाद तो ब्रह्माकी सब तरह आशा पूरी करेगी हो। पर इस समय भी इसका रूप-सौंदर्य इतना मनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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