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________________ ४२८ आराधना कथाकोश था। इसलिए अपनी स्त्रीका ऐसा दुराचार देखकर उसे बड़ा वैराग्य हआ। उसने फिर संसारका भ्रमण मिटानेवाली जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । वह बहुत ही कंटाल गया था। सागरदत्त तपस्या कर स्वर्ग गया। स्वर्गायु पूरी कर वह अंगदेशकी राजधानी चम्पा नगरीमें वसुपाल राजाकी रानी वसुमतीके दन्तिवाहन नामका राजकुमार हुआ । वसुपाल सुखसे राज करते रहे। इधर वह सोमशर्मा मर कर पापके फलसे पहले तो बहुत समय तक दुर्गतियोंमें घूमा किया। एकसे एक दुःसह कष्ट उसे सहना पड़ा । अन्त में वह कलिंग देशके जंगल में नर्मदातिलक नामका हाथी हआ। और ठीक ही है पापसे जोवोंको दुर्गतियोंके दुःख भोगना ही पड़ते हैं। कर्मसे इस हाथीको किसीने पकड़ लाकर वसुपालको भेंट किया। उधर इस हाथीके पूर्वभवके जीव सोमशर्माकी स्त्री नागदत्ताने भी पापके उदयसे दुर्गतियोंमें अनेक कष्ट सहे । अन्तमें वह तामलिप्तनगरमें भी वसुदत्त सेठकी स्त्री नागदत्ता हई। उस समय इसके धनवती और धनश्री नामकी दो लड़कियाँ हुईं। ये दोनों ही बहिनें बड़ी सुन्दर थीं। स्वर्गकुमारियाँ इनका रूप देखकर मन ही मन बड़ी कुढ़ा करती थीं। इनमें धनवतीका ब्याह नागानन्द पुरके रहनेवाले वनपाल नामके सेठ पुत्रके साथ हुआ और छोटी बहिन धनश्री कोशाम्बीके वसुमित्रकी स्त्री हुई। वसुमित्र जैनी था । इसलिए उसके सम्बन्धसे धनश्रीको कई बार जैनधर्मके उपदेश सुननेका मौका मिला । वह उपदेश उसे बहुत रुचि कर हुआ और फिर वह भी श्राविका हो गई। लड़कीके प्रेमसे नागदत्ता एक बार धनश्रीके यहाँ गई । धनश्रीने अपनी माँका खूब आदर-सत्कार किया और उसे कई दिनों तक अच्छी तरह अपने यहीं रक्खा । नागदत्ता धनश्रीके यहाँ कई दिनों तक रही, पर वह न तो कभी मन्दिर गई और न कभी उसने धर्म की कुछ चर्चा की। धनश्री अपनी माँको धर्मसे विमुख देखकर एक दिन उसे मुनिगजके पास ले गई और समझा कर उसे मुनिराज द्वारा पांच अणुव्रत दिलवा दिये । एक बार इसी तरह नागदत्ताको अपनी बड़ी लड़की धनवतीके यहाँ जाना पड़ा। धनवती बद्धधर्मको मानती थी । सो उसने इसे बुद्धधर्मकी अनुयायिनी बना लिया। इस तरह नागदत्ताने कोई तीन बार जैनधर्मको छोड़ा । अन्त में उसने फिर जैनधर्म ग्रहण किया और अबकी बार वह उस पर रहा भो बहुत दृढ़ । जन्म भर फिर उसने जैनधर्मको निर्वाहा । आयु. के अन्तमें मरकर वह कौशाम्बीके राजा वसुपालकी रानी वसुमतीके लड़की हुई । पर भाग्यसे जिस दिन वह पैदा हुई, वह दिन बहुत खराब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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