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________________ rairiratna ४०७ .... ... . ... ....... . .. ... दान करनेवालोंको कथा हुआ कि कपिल रत्नसंचयपुरमें अच्छी हालतमें है। राजा द्वारा उसे धनमान खूब प्राप्त है। वह तब उसी समय सीधा कपिलके पास आया। उसे दूर हीसे देखकर कपिल मन ही मन धरणोजट पर बड़ा गुस्सा हुआ। अपनी बढ़ी हुई मान-मर्यादाके समय इसका अचानक आ जाना कपिलको बहुत खटका । पर वह कर क्या सकता था। उसे साथ ही इस बातका बड़ा भय हुआ कि कहीं वह मेरे सम्बन्ध में लोगोंको भड़का न दे । यही सब विचार कर वह उठा और बड़ी प्रसन्नतासे सामने जाकर धरणीजटको इसने नमस्कार किया और बड़े मानसे लाकर उसे ऊँचे आसन पर बैठाया। इसके बाद उसने-पिताजो, मेरो माँ, भाई आदि सब सुखसे तो हैं न ? इस प्रकार कुशल समाचार पूछ कर धरणीजटको स्नान, भोजन कराया और उसका वस्त्रादिसे खूब सत्कार किया। फिर सबसे आगे एक खास मानकी जगह बैठाकर कपिलने सब लोगोंको धरणीजटका परिचय कराया कि ये ही मेरे पिताजी हैं। बड़े विद्वान् और आचार-विचारवान् हैं। कपिलने यह सब मायाचार इसीलिए किया था कि कहीं उसकी माताका सब भेद खुल न जाय। धरणीजट दरिद्री हो रहा था। धनकी उसे चाह थो हो, सो उसने उसे अपना पुत्र मान लेने में कुछ भी आनाकानी न की। धनके लोभसे उसे यह पाप स्वीकार कर लेना पड़ा । ऐसे लोभको धिक्कार है, जिसके वश हो मनुष्य हर एक पापकर्म कर डालता है। तब धरणीजट वहीं रहने लग गया। यहाँ रहते इसे कई दिन हो चुके । सबके साथ इसका थोड़ा बहुत परिचय भी हो गया। एक दिन मौका पाकर सत्यभामाने इसे कुछ थोड़ा बहुत द्रव्य देकर एकान्तमें पूछा-महाराज, आप ब्राह्मण हैं और मेरा विश्वास है कि ब्राह्मण देव कभी झूठ नहीं बोलते । इसलिए कृपाकर मेरे सन्देहको दूर कीजिए। मुझे आपके इन कपिलजीका दुराचार देख यह विश्वास नहीं होता कि ये आप सरीखे पवित्र ब्राह्मणके कुलमें उत्पन्न हुए हों, तब क्या वास्तवमें ये ब्राह्मण ही हैं या कुछ गोलमाल है। धरणीजटको कपिलसे इसलिए द्वेष हो ही रहा था कि भरी सभामें कपिलने उसे अपना पिता बता उसका अपमान किया था। और दूसरे उसे धनकी चाह थी, सो उसके मनके माफिक धन सत्यभामाने उसे पहले ही दे दिया था। तब वह कपिलको सच्ची हालत क्यों छिपायेगा? जो हो, धरणीजट सत्यभामाको सब हाल कहकर और प्राप्त धन लेकर रत्नसंचयपुरसे चल दिया। सुनकर कपिल पर सत्यभामाकी घृणा पहलेसे कोई सौ गुणी बढ़ गई। उसने तब उससे बोलना-चालना तक छोड़कर एकान्तवास स्वीकार कर लिया, पर अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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