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________________ ४०८ आराधना कथाकोश कुलाचारकी मान-मर्यादाको न छोड़ा। सत्यभामाको इस प्रकार अपनेसे घृणा करते देव कपिल उससे बलात्कार करने पर उतारू हो गया । तब सत्यभामा धरसे भागकर श्रीषेण महाराजकी शरण आ गई और उसने सब हाल उनसे कह दिया। श्रीषेणने तब उस पर दयाकर उसे अपनी लड़कीको तरह अपने यहीं रख लिया। कपिल सत्यभामाके अन्यायको पुकार लेकर श्रीषेगके पास पहुँचा । उसके व्यभिचारकी हालत उन्हें पहले ही मालूम हो चुकी थी, इसलिए उसको कुछ न सुनकर श्रोषेगने उस लम्पटी और कपटी ब्राह्मणको अपने देश हीसे निकाल दिया। सो ठीक 'हो है राजोंको सज्जनोंकी रक्षा और दुष्टोंको सजा करनी ही चाहिए। ऐसा न करने पर वे अपने कर्त्तव्यसे च्युत होते हैं और प्रजाके धनहारी हैं। एक दिन श्रोषेणके यहाँ आदित्यगति और अरिंजय नामके दो चारणऋद्धिके धारी मुनिराज पृथिवोको अपने पाँवोंसे पवित्र करते हुए आहारके लिये आये। श्रीषणने बड़ी भक्तिसे उनका आह्वान कर उन्हें पवित्र आहार कराया। इस पात्रदानसे उनके यहाँ स्वर्गके देवोंने रत्नोंकी वर्षा को, कल्पवृक्षोंके सुन्दर और सुगन्धित फूल बरसाये, दुन्दुभी बाजे बजे, मन्द-सुगन्ध वायु बहा और जय-जयकार हुआ, खूब बधाइयाँ मिलों। और सच है, सुपात्रोंको दिये दानके फलसे क्या नहीं हो पाता। इसके बाद श्रीषेणने और बहुत वर्षोंतक राज्य-सुख भोगा। अन्त में मरकर वे धातकोखण्ड द्वीपके पूर्वभागकी उत्तर-कुरु भोगभूमिमें उत्पन्न हुए। सच है, साधुओंकी संगतिसे जब मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है तब कौन ऐसी उससे भी बढ़कर वस्तु होगी जो प्राप्त न हो । श्रोषेणको दोनों रानियाँ तथा सत्यभाभा भी इसी उत्तरकुरु भोगभूमिमें जाकर उत्पन्न हुई। ये सब इस भोगभमिमें दस प्रकारके कल्पवक्षोंसे मिलनेवाले सखोंको भोगते हैं और आनन्दसे रहते हैं। यहाँ इन्हें कोई खाने-कमानेकी चिन्ता नहीं करना पड़ती है। पुण्योदयसे प्राप्त हुए भोगोंको निराकुलतासे ये आयु पूर्ण होने तक भोगेंगे । यहाँको स्थिति बड़ो अच्छो है। यहाँके निवासियोंको कोई प्रकारकी बीमारी, शोक, चिन्ता, दरिद्रता आदिसे होनेवाले कष्ट नहीं सता पाते। इनको कोई प्रकारके अपघातसे मौत नहीं होती। यहाँ किसीके साथ शत्रुता नहीं होती। यहाँ न अधिक जाड़ा पड़ता और न अधिक गर्मी होती है। किन्तु सदा एकसी सुन्दर ऋतु रहती है । यहाँ न किसीको सेवा करनी पड़ता है और न किसीके द्वारा अपमान सहना पड़ता है। न यहाँ युद्ध है और न कोई किसीका बैरो ही है। यहाँके लोगोंके भाव सदा पवित्र रहते हैं । आयु पूरी होने तक ये इसी तरह सुखसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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