SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० आराधना कथाकोश सामान्य स्वरूप समझाया-देखो, जो अठारह दोषोंसे रहित और सबके देखनेवाले सर्वज्ञ हैं, वे देव कहाते हैं और ऐसे निर्दोष भगवान् द्वारा बताये दयामय मार्गको धर्म कहते हैं । धर्मका वैसे सामान्य लक्षण हैजो दुःखोंसे छुड़ाकर सुख प्राप्त करावे । ऐसे धर्मको आचार्योंने दस भागोंमें बाँटा है । अर्थात् सुख प्राप्त करनेके दस उपाय हैं। वे ये हैंउत्तम क्षमा, मार्दव-हृदयका कोमल होना, आर्जव-हृदयका सरल होना, सच बोलना, शौच-निर्लोभी या संतोषी होना संयम-इन्द्रियोंको वश करना, तप-व्रत उपवासादि करना, त्याग-पुण्यसे प्राप्त हुए धनको सुकृतके काम जैसे दान, परोपकार आदिमें लगाना, आकिंचन-परिग्रह अर्थात् धन-धान्य, चाँदी-सोना, दास-दासी आदि दस प्रकारके परिग्रहकी लालसा कम करके आत्माको शान्तिके मार्ग पर ले जाना और ब्रह्मचर्यका पालना। गुरु वे कहलाते हैं जो माया, मोह-ममतासे रहित हों, विषयों को वासना जिन्हें छू तक न गई हो, जो पक्के ब्रह्मचारी हों, तपस्वी हों और संसारके दुःखी जीवोंको हितका रास्ता बतला कर उन्हें सुख प्राप्त करानेवाले हों । इन तीनों पर अर्थात् देव, धर्म, गुरु पर विश्वास करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन सुख-स्थान पर पहुँचनेकी सबसे पहली सीढ़ो है । इसलिये तुम इसे ग्रहण करो। इस विश्वासको जैन शासन या जैनधर्म भी कहते हैं। जैनधर्ममें जीवको, जिसे कि आत्मा भी कहते हैं, अनादि माना है। न केवल माना हो है, किन्तु वह अनादि हो है । नास्तिकोंकी तरह वह पंचभूत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इनसे बना हुआ नहीं है । क्योंकि ये सब पदार्थ जड़ हैं। ये देख जान नहीं सकते । और जोवका देखना जानना ही खास गुण है। इसी गुणसे उसका अस्तित्व सिद्ध होता है। जीवको जैनधर्म दो भागोंमें बांट देता है। एक भव्य-~अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका, जिन्होंने कि आत्माके वास्तविक स्वरूपको अनादिसे ढाँक रक्खा है, नाश कर मोक्ष जानेवाला और दूसरा अभव्य-जिसमें कर्मोंके नाश करनेको शक्ति न हो। इनमें कर्मयुक्त जीवको संसारो कहते हैं और कर्म रहितको मुक्त । जोवके सिवा संसार में एक और भी द्रव्य है । उसे अजीव या पुद्गल कहते हैं। इसमें जानने देखनेको शक्ति नहीं होती, जैसा कि ऊार कहा जा चुका है। अजीवको जैनधर्म पाँच भागोंमें बाँटता है, जैसे पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन पांचोंकी दो श्रेणियाँ की गई हैं। एक मूर्तिक और दूसरी अमूर्तिक । मूर्तिक उसे कहते हैं जो छुई जा सके, जिसमें कुछ न कुछ स्वाद हो, गन्ध और वर्ण रूप-रंग हो। अर्थात् जिसमें स्पर्श, रस, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy