SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्राचार्यकी कथा २३ साहित्य आदि विषयोंके भी बड़े भारी विद्वान् थे । संसारमें उनकी बहुत ख्याति थी । वे कठिन से कठिन चारित्रका पालन करते, दुस्सह तप तपते और बड़े आनन्द अपना समय आत्मानुभव, पठनपाठन, ग्रन्थरचना आदिमें व्यतीत करते । कर्मो का प्रभाव दुर्निवार है। उसके लिये राजा हो या रंक हो, धनी हो या निर्धन हो, विद्वान् हो या मूर्ख हो, साधु हो या गृहस्थ हो सब समान हैं, सबको अपने-अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है । भगवान् समन्तभद्रके लिये भी एक ऐसा ही कष्टका समय आया । वे बड़े भारी तपस्वी थे, विद्वान् थे, पर कर्मोंने इन बातोंकी कुछ परवा न कर उन्हें अपने चक्र में फँसाया । असातावेदनीयके तीव्र उदयसे भस्मव्याधि नामका एक भयंकर रोग उन्हें हो गया । उससे वे जो कुछ खाते वह उसी समय भस्म हो जाता और भूख वैसीकी वैसी बनी रहती । उन्हें इस बातका बड़ा कष्ट हुआ कि हम विद्वान् हुए और पवित्र जिनशासनका संसारभरमें प्रचार करनेके लिये समर्थ भी हुए तब भी उसका कुछ उपकार नहीं कर पाते । इस रोगने असमयमें बड़ा कष्ट पहुँचाया । अस्तु । अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे इसकी शान्ति हो । अच्छे-अच्छे स्निग्ध, सचिक्कण और पौष्टिक पक्वान्नका आहार करनेसे इसकी शान्ति हो सकेगी, इसलिये ऐसे भोजनका योग मिलाना चाहिये । पर यहाँ तो इसका कोई साधन नहीं दीख पड़ता । इसलिये जिस जगह, जिस तरह ऐसे भोजनकी प्राप्ति हो सकेगी मैं वहीं जाऊँगा और वैसा ही उपाय करूँगा । यह विचारकर वे कांचीसे निकले और उत्तरकी ओर रवाना हुए । कुछ दिनोंतक चलकर वे पुण्ढ नगर में आये । वहाँ बौद्धोंकी एक बड़ी भारी दानशाला थी । उसे देखकर आचार्यने सोचा, यह स्थान अच्छा है । यहाँ अपना रोग नष्ट हो सकेगा । इस विचारके साथ ही उन्होंने बुद्धसाधुका वेष बनाया और दानशाला में प्रवेश किया । पर वहाँ उन्हें उनकी व्याधिशान्तिके योग्य भोजन नहीं मिला। इसलिये वे फिर उत्तरकी ओर आगे बढ़े और अनेक शहरोंमें घूमते हुए कुछ दिनोंके बाद दशपुर-मन्दोसोरमें आये । वहाँ उन्होंने भागवत - वैष्णवोंका एक बड़ा भारी मठ देखा । उसमें बहुतसे भागवतसम्प्रदाय के साधु रहते थे। उनके भक्तलोग उन्हें खूब अच्छा-अच्छा भोजन देते थे । यह देखकर उन्होंने बौद्धवेषको छोड़कर भागवत - साधुका वेष ग्रहण कर लिया । वहाँ वे कुछ दिनोंतक रहे, पर उनकी व्याधिके योग्य उन्हें वहाँ भी भोजन नहीं मिला। तब वे वहाँसे For Private & Personal Use Only Jain Education International T www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy