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________________ आराधना कथाकोश अयोध्या में रहनेवाले सम्राट् भारतेश्वर भरत के मरीचि नामका पुत्र हुआ । मरीचि भव्य था और सरलमना था । जब आदिनाथ भगवान्, जो कि इन्द्र, धरणेन्द्र, विद्याधर चक्रवर्त्ती आदि सभी महापुरुषों द्वारा सदा पूजा किये जाते थे, ससार छोड़कर योगी हुए तब उनके साथ कोई चार हजार राजा और भी साधु हो गये। इस कथाका नायक मरीचि भी इन साधुओंमें था । २३२ भरतराज एक दिन भगवान् आदिनाथ तीर्थंकरका उपदेश सुननेको समवशरण में गये । भगवान्‌को नमस्कार कर उन्होंने पूछा - भगवन्, आपके बाद तेईस तीर्थंकर और होंगे, ऐसा मुझे आपके उपदेश से जान पड़ा । पर इस सभा में भी कोई ऐसा महापुरुष है जो तीर्थंकर होनेवाला हो ? भगवान् बोले- हाँ, है । वह यही तेरा पुत्र मरीचि, जो अन्तिम तीर्थंकर महावीरके नामसे प्रख्यात होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं । सुनकर भरतकी प्रसन्नता का तो कुछ ठिकाना न रहा और इसी बात से मरीचिकी मतिगति उलटो ही हो गई । उसे अभिमान आ गया कि अब तो में तीर्थ कर होऊँगा ही, फिर मुझे नंगे रहना, दुःख सहना पूरा खाना-पीना नहीं, यह सब कष्ट क्यों ? किसी दूसरे वेषमें रहकर मैं क्यों न सुख आरामपूर्वक रहूँ ! बस, फिर क्या था, जैसे ही विचारोंका हृदयमें उदय हुआ, उसी समय वह सब व्रत, संयम, आचार-विचार, सम्यक्त्व आदिको छोड़-छाड़ कर तापसी बन गया और सांख्य, परिव्राजक आदि कई मतोंको अपनी कल्पनासे चलाकर संसारके घोर दुःखोंका भोगनेवाला हुआ। इसके बाद वह अनेक कुगतियों में घूमा किया। सच है, प्रमाद, असावधानी या कषाय जीवों के कल्याण मार्ग में बड़ा हो विघ्न करनेवाली है और अज्ञानसे भव्यजन भी प्रमादी बनकर दुःख भोगते हैं । इसलिए ज्ञानियोंको धर्मकार्यों में तो कभी भूलकर भी प्रमाद करना ठीक नहीं है । मोहकी लीलासे मरीचिको चिरकाल तक संसारमें घूमना पड़ा। इसके बाद पापकर्मकी कुछ शान्ति होनेसे उसे जैनधर्मका फिर योग मिल गया । उसके प्रसादसे वह नन्द नामका राजा हुआ। फिर किसी कारण से इसे संसारसे वैराग्य हो गया । मुनि होकर इसने सोलह कारणभावना द्वारा तीर्थंकर नाम प्रकृतिका बन्ध किया । यहाँसे यह स्वर्ग गया । स्वर्गायु पूरी होने पर इसने कुण्डलपुरमें सिद्धार्थ राजाकी प्रियकारिणी प्रियाके यहाँ जन्म लिया । ये ही संसारपूज्य महावीर भगवान् के नामसे प्रख्यात हुए । इन्होंने कुमारपनमें ही दीक्षा लेकर तपस्या द्वारा घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया । देव, विद्याधर चक्रत्रत्तियों द्वारा ये पूज्य हुए। अनेक जीवोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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