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________________ वशिष्ठ तापसीकी कथा २२७ हिलानेवाली गर्जनाको सुनकर एक भीमकाय पहलवानने अखाड़ेमें उतरकर खम ठोका । और सामनेवाले वीरको अखाड़े में उतरनेके लिए ललकारा । युवा भी बिजली की तरह चपलतासे झटसे अखाड़ेमें दाखिल हो गया। इशारा होते हो दोनोंकी मुठभेड़ हई। युवाको वीरश्री और चंचलता इस समय देखनेके हो योग्य थी। उस मूर्तिमान वीरश्रीने कुछ देर तक तो उस पहलवानको खेल खिलाया और अन्तमें उठाकर ऐसा पछाडा कि उसे आसमानके तारे दीख पड़ने लगे। इतनेमें ही उसका साथी दूसरा पहिलवान अखाड़ेमें उतरा । वासुदेवने उसकी भी यही दशा की । उपस्थित मंडलीके आनन्दको सीमा न रही। तालियोंसे उसका खूब जयजयकार मनाया गया। अब तो कंससे किसी तरह न रहा गया। उसके हृदयमें ईर्षा, द्वेष, प्रतिहिंसा और मत्सरताकी आग भड़क उठी । वह तलवार हाथमें लिये ललकार कर बोला, हाँ ठहरो ! अभी लड़ाई बाकी है । यह कहकर वह स्वयं हाथमें शमशेर लिये अखाड़ेमें उतरा। उसे देखकर सब भौंचकसे रह गये । किसीकी समझमें न आया कि यह रहस्य क्या है ? क्यों ऐसा किया जा रहा है ? किसीको कुछ कहने विचारनेका अधिकार न था । इसलिए वे सब लाचार होकर उस भयंकर समयकी प्रतीक्षा करने लगे कि अन्त में देखें ऊँट किस करवट बैठता है। जो हो, पर इतना अवश्य है कि प्रकृतिको अधिक अन्याय, अत्याचार सहन नहीं होता, और इसलिए वह फिर एक ऐसो शक्ति पैदा करती है जो उन अत्याचारोंके अंकुरको जड़मूलसे हो उखाड़ फेंक देती है। कंसके भयानक अत्याचारोंसे सारी प्रजा त्राह-वाह कर उठो थी । शान्ति, सुखका कहीं नाम निशान भी न रह गया था। इसीलिए प्रकृतिने वासुदेव सरीखी एक महाशक्तिको उत्पन्न किया । कंसको अखाड़ेमें उतरा देखकर वासुदेव भी तलवार उठा उसके सामने हुआ। दोनोंने अपनी-अपनी तलवारको सम्हाला । कंसका हृदय क्रोधको आगसे जल ही रहा था, सो, उसने झपट कर वासुदेव पर पहला वार किया। श्रीकृष्णने उसके वारको बड़ी बुद्धिमानीसे बचाकर उस पर एक ऐसा जोरका वार किया कि पहला ही वार कंससे सम्हालते न बना और देखते-देखते वह धड़ामसे गिरकर सदाके लिए पृथिवाको गोदमें सो गया। प्रकृतिको सन्तोष हुआ। उसने अपना कर्तव्य पूरा कर लोगों को भी यह शिक्षा दे दो कि देखो, निर्बलों पर अत्याचार करनेका तुम्हें कोई अधिकार नहीं । मैं ऐसे पापियोंका पृथिवी पर नाम निशान भी नहीं रहने देता । यदि तुम सुखो रहना पसन्द करते हो तो दूसरोंको सुखो करनेका यत्न करो। यह मेरा आदेश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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