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________________ वशिष्ठ तापसीको कथा २२५ उल्का गिरती और कभी और कोई भयानक उपद्रव होता । यह देख कंसको बड़ी चिन्ता हुई । वह बहुत घबराया। उसकी समझ में कुछ न आया कि यह सब क्या होता है ? एक दिन विचार कर उसने एक ज्योतिषोको बुलाया और उसे सब हाल कहकर पूछा कि पंडितजी, यह सब उपद्रव क्यों होते हैं ? इसका कारण क्या आप मुझे कहेंगे? ज्योतिषीने निमित्त विचार कर कहा-महाराज, इन उपद्रवका होना आपके लिए बहुत ही बुरा है । आपका शत्रु दिनों-दिन बढ़ रहा है। उसके लिए कुछ प्रयत्न कीजिए । और वह कोई बड़ी दूर न होकर यहीं गोकुल में है। कंस बड़ी चिन्तामें पड़ा। वह अपने शत्रुके मारनेका क्या यत्न करे, यह उसको समझ में न आया। उसे चिन्ता करते हुए अपनी पूर्व सिद्ध हई विद्याओंको याद हो उठी । एकदम चिन्ता मिटकर उसके मुंह पर प्रसन्नताकी झलक देख पड़ी। उसने उन विद्याओंको बुलाकर कहा-इस समय तुमने बड़ा काम दिया । आओ, अब पलभरको भी देरी न कर जहाँ मेरा शत्रु हो उसे ठार मारकर मुझे बहत जल्दी उसकी मौतके शुभ समाचार दो । विद्याएँ वासुदेवको मारनेको तैयार हो गई। उनमें पहली पूतना विद्याने धायके वेषमें जाकर वासुदेवको दूधकी जगह विष पिलाना चाहा । उसने जैसे ही उसके मुंहमें स्तन दिया, वासुदेवने उसे इतने जोरसे काटा कि पूतनाके होश गुम हो गये । वह चिल्लाकर भाग खड़ी हुई । उसकी यहाँतक दुर्दशा हुई कि उसे अपने जीनेमें भी सन्देह होने लगा। दूसरी विद्या कौएके वेशमें वासुदेवकी आँखें निकाल लेनेके यत्नमें लगी, सो उसने उसकी चोंच, पीख वगैरहको नोंच नाचकर उसे भी ठीक कर दिया। इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवीं देवी जुदा-जुदा वेषमें वासुदेवको मारनेका यत्न करने लगीं, पर सफलता किसीको भी न हई। इसके विपरीत देवियोंको ही बहुत कष्ट सहना पड़ा । यह देख आठवीं देवीको बड़ा गुस्सा आया । वह तब कालिकाका वेष लेकर वासुदेवको मारनेके लिए तैयार हई। वासूदेवने उसे भी गोवर्द्धन पर्वत उठाकर उसके नीचे दाब दिया। मतलब यह है विद्याओंने जितनी भी कुछ वासुदेवके मारनेकी चेष्टा की वह सब व्यर्थ गईं । वे सब अपना-सा मुंह लेकर कंसके पास पहुंची और उससे बोली-देव, आपका शत्रु कोई ऐसा वैसा साधारण मनुष्य नहीं। वह बड़ा बलवान है। हम उसे किसी तरह नहीं मार सकतीं। देवियां इतना कहकर चल दी। उनकी इन विभीषिकाको सुनकर कंस हतबुद्धि हो गया । वह इस बातसे बड़ा घबराया कि जिसे देवियाँ तक जब न मार सकी तब तो उसका मारना कठिन हो नहीं किन्तु १५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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