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________________ धनके लोभसे भ्रममें पड़े कुबेरदत्तकी कथा मैं कभी इसे 'तू' कहकर न पुकारूंगा। तब इनके साथ मेरा ब्याह हो गया। मैं बड़े उत्साहके साथ उज्जैनमें लाई गई। सच कहूँगो कि इस घरमें आकर मैं बड़े सुखसे रही। भगवान् की कृपासे घर सब तरह हरा भरा है। धन सम्पत्ति भी मनमानी है। पर 'पड़ा स्वभाव जाय जीवसे' इस कहावतके अनुसार मेरा स्वभाव भी सहजमें थोड़े ही मिट जानेवाला था । सो एक दिनकी बात है कि मेरे स्वामी नाटक देखने गये । नाटक देखकर आते हुए उन्हें बहुत देर लग गई। उनकी इस देरी पर मुझे अत्यन्त गुस्सा आया। मैंने निश्चय कर लिया कि आज जो कुछ हो, मैं कभी दरवाजा नहीं खोलंगी और मैं सो गई। थोड़ी देर बाद वे आये और दरवाजे पर खड़े रहकर वे बार-बार मुझे पुकारने लगे। मैं चुप्पी साधे पड़ो रही, पर मैंने किवाड़ न खोले। बाहरसे चिल्लाते-चिल्लाते वे थक गये, पर उसका मुझ पर कुछ असर न हुआ। आखिर उन्हें भी बड़ा क्रोध हो आया । क्रोध में आकर वे अपनी प्रतिज्ञा तक भूल बैठे। सो उन्होंने मुझे 'तू' कहकर पुकार लिया। बस, उनका 'त' कहना था कि मैं सिरसे पाँवतक जल उठी और क्रोधसे अन्धी बनकर किवाड़ खोलती हुई घरसे निकल भागी। मुझे उस समय कुछ न. सूझा कि मैं कहाँ जा रही हैं। मैं शहर बाहर होकर जंगलकी ओर चल धरी। रास्तेमें चोरोंने मुझे देख लिया। उन्होंने मेरे सब गहने-दागीने और वस्त्र छीन-छानकर विजयसेन नामके एक भीलको सौंप दिया। मुझे खबसूरत देखकर इस पापीने मेरा धर्म बिगाड़ना चाहा, पर उस समय मेरे भाग्यसे किसी दिव्य स्त्रीने आकर मुझे बचाया, मेरे धर्मकी उसने रक्षा की। भीलने उस दिव्य स्त्रोसे डरकर मुझे एक सेठके हाथ सौंप दिया। उसकी नियत भी मुझ पर बिगड़ी। मैंने उसे खूब ही आड़े हाथों लिया। इससे वह मेरा कर तो कुछ न सका, पर गुस्से में आकर उस नीचने मुझे , एक ऐसे मनुष्यके हाथ सौंप दिया जो जीवोंके खूनसे रँगकर कम्बल बनाया करता था। वह मेरे शरीर पर जौंके लगा-लगाकर मेरा रोज-रोज बहतसा खून निकाल लेता था और उसमें फिर कम्बलको रँगा करता था। सच है, एक तो वैसे ही पाप कर्मका उदय और उस पर ऐसा क्रोध, तब उससे मुझ सरीखी हत-भागिनियोंको यदि पद-पद पर कष्ट उठाना पड़े तो उसमें आश्चर्य ही क्या ? ___इसी समय उज्जैनके राजाने मेरे भाईको यहाँके राजा पारसके पास किसी कार्यके लिये भेजा। मेरा भाई अपना काम पूराकर पीछा उज्जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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