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________________ १९८ आराधना कथाकोश जानेसे फिर भी वह फिसल गया और घड़ा फूटकर उसका सब तैल बह गया। इसी तरह तीसरा घड़ा भी फट गया। अब तो जिनदत्तके देवता कंच कर गये। भयके मारे वह थर-थर काँपने लगा। उसकी यह दशा देखकर तुकारीने उससे कहा कि घबराने और डरनेकी कोई बात नहीं। तुमने कोई जानकर थोड़े ही फोड़े हैं। तुम किसी तरहकी चिन्ता-फिकर मत करो । जब तक तुम्हें जरूरत पड़े तुम प्रसन्नताके साथ तैल ले जाया करो। देनेसे मुझे कोई उजर न होगा। कोई कैसा ही सहनशील क्यों न हो, पर ऐसे मौके पर उसे भी गुस्सा आये बिना नहीं रहता। फिर इस स्त्रीमें इतनी क्षमा कहाँसे आई ? इसका जिनदत्तको बड़ा आश्चर्य हुआ। जिनदत्तने तुकारीसे पूछा भी, कि माँ, मैंने तुम्हारा इतना भारी अपराध किया, उस पर भी तुमको रत्तीभर क्रोध नहीं आया, इसका कारण क्या है ? तुकारीने कहा-भाई, क्रोध करनेका फल जैसा चाहिए वैसा मैं भुगत चुकी हूँ। इसलिए क्रोधके नामसे ही मेरा जी काँप उठता है। यह सुनकर जिनदत्तका कौतुक और बढ़ा, तब उसने पूछा यह कैसे ? तुकारी कहने लगी___"चन्दनपुरमें शिवशर्मा ब्राह्मण रहता है । वह धनवान् और राजाका आदरपात्र है। उसकी स्त्रीका नाम कमलश्री है। उसके कोई आठ तो पुत्र और एक लड़की है। लड़कीका नाम भट्टा है और वह मैं हो हूँ। मैं थी बड़ी सुन्दरी, पर मुझमें एक बड़ा दुगुण था। वह यह कि में अत्यन्त मानिनी थी। मैं बोलनेमें बड़ी ही तेज थी और इसीलिए मेरे भयका सिक्का लोगोंके मन पर ऐसा जमा हुआ था कि किसीकी हिम्मत मुझे "तू" कहकर पुकारनेकी नहीं होती थी। मुझे ऐसी अभिमानिनी देखकर मेरे पिताने एकबार शहरमें डौंडी पिटवा दो कि मेरी बेटोको कोई "तू" कहकर न पुकारे । क्योंकि जहाँ मुझसे किसीने 'तू' कहा कि मैं उससे लड़ने-झगड़नेको तैयार हो रहा करती थी और फिर जहाँतक मुझमें शक्ति जोर होता मैं उसकी हजारों पोढ़ियोंको एक पलभरमें अपने सामने ला खड़ा करती और पिताजो इस लड़ाई-झगड़ेसे सौ हाथ दूर भागनेकी कोशिश करते। जो हा, पिताजीने तो अच्छा ही काम किया था, पर मेरे खोटे भाग्यसे उनका डौंडी पिटवाना मेरे लिए बहुत ही बुरा हुआ। उस दिनसे मेरा नाम ही 'तुकारी' पड़ गया और सब ही मुझे इस नामसे पुकार-पुकार कर चिढ़ाने लगे। सच है, अधिक मान भी कभी अच्छा नहीं होता । और इसी चिड़के मारे मुझसे कोई ब्याह करने तकके लिए तैयार न होता था। मेरे भाग्यसे इन सोमशर्माजीने इस बातकी प्रतिज्ञा की कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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