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________________ २०० आराधना कथाकोश की ओर जा रहा था कि अचानक मेरी उसकी भेंट हो गई । मैंने अपने कर्मों पर बड़ा पश्चात्ताप किया। जब मैंने अपना सब हाल उससे कहा तो उसे भी बहुत दुःख हुआ । उसने मुझे धीरज दिया। इसके बाद वह उसी समय राजा के पास गया और सब हाल उनसे कहकर उस कम्बल बनानेवाले पापीसे उसने मेरा पंजा छुड़ाया । वहाँ से लाकर बड़ी आर्जूभिन्नत के साथ उसने फिर मुझे अपने स्वामीके घर ला रक्खा । सच है, सच्चे बन्धु वे ही हैं जो कष्टके समय काम आवें । यह तो तुम्हें मालूम ही है कि मेरे शरीरका प्रायः खून निकल चुका था । इसी कारण घर पर आते ही मुझे लकवा मार गया। तब वैद्यने यह लक्षपाक तैल बनाकर मुझे जिलाया । इसके बाद मैंने एक वीतरागी साधु द्वारा धर्मोपदेश सुनकर सर्वश्रेष्ठ और सुख देनेवाला सम्यक्त्व व्रत ग्रहण किया और साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि आजसे मैं किसी पर क्रोध नहीं करूंगी । यही कारण है कि मैं अब किसी पर क्रोध नहीं करती ।" अब आप जाइए और इस तैल द्वारा मुनिराज की सेवा कीजिए । अधिक देरी करना उचित नहीं है । जिनदत्त भट्टाको नमस्कार कर घर गया और तेलका मालिश वगैरह से बड़ी सावधानीके साथ मुनिकी सेवा करने लगा । कुछ दिन तक बराबर मालिश करते रहने से मुनिको आराम हो गया । सेठने भी अपनो इस सेवा भक्ति द्वारा बहुत पुण्यबन्ध किया । चौमासा आगया था इसलिए मुनिराजने कहीं अन्यत्र जाना ठीक न समझ यहीं जिनदत्त सेठके जिन मन्दिर में वर्षायोग ले लिया और यहीं वे रहने लगे । जिनदत्तका एक लड़का था, नाम इसका कुबेरदत्त था । इसका चाल-चलन अच्छा न देखकर जिनदत्तने इसके डरसे कीमती रत्नोंका भरा अपना एक घड़ा जहाँ मुनि सोया करते थे वहाँ खोद कर गाड़ दिया । जिनदत्तने यह कार्य किया तो था बड़ी दुपका चोरी से, पर कुबेरदत्तको इसका पता पड़ गया। उसने अपने पिताका सब कर्म देख लिया और मौका पाकर वहाँसे घड़ेको निकाल मन्दिर के आँगन में दूसरी जगह गाड़ दिया । कुबेरदत्तको ऐसा करते मुनिने देख लिया था, परन्तु तब भी वे चुपचाप रहे और उन्होंने किसीसे कुछ नहीं कहा। और कहते भी कहाँसे जब कि उनका यह मार्ग ही नहीं है । जब योग पूरा हुआ तब मुनिराज जिनदत्तको सुख साता पूछकर वहाँ से बिहार कर गये। शहर बाहर जाकर वे ध्यान करने बैठे । इधर मुनिराज के चले जाने के बाद सेठने वह रत्नोंका घड़ा घर लेजानेके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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