SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सात्यकि और रुद्रकी कथा १८७ चलनेके लिए कहा । चेलिनी सहमत तो हो गई, पर उसे उसका ले चलना इष्ट नहीं था; इसलिए जब ये दोनों बहिनें थोड़ी दूर गई होंगी कि धूर्ती चेलिनोते ज्येष्ठासे कहा-बहिन, मैं अपने आभूषण तो सब महल ही में भल आई हैं। तू जाकर उन्हें ले आ न? मैं तब तक यहीं खड़ी हूँ। बेचारी भोली ज्येष्ठा उसके झांसे में आकर चली गई। वह थोड़ी दूर ही पहुंची होगी कि इसने इधर आगेका रास्ता पकड़ा और जब तक ज्येष्ठा संकेत स्थानपर आती है तब तक यह बहुत दूर आगे बढ़ आई। अपनी बहिनकी इस कुटिलता या धोखेबाजोसे ज्येष्ठाको बेहद दुःख हुआ। और इसी दुःखके मारे वह यशस्वती आर्यिकाके पास दीक्षा ले गई। ज्येष्ठाकी सगाई सत्यन्धरके पुत्र सात्यकिसे हो चुकी थी। पर जब सात्यकिने उसका दोक्षा ले लेना सुना तो वह भी विरक्त होकर समाधिगुप्त मुनि द्वारा दीक्षा लेकर मुनि बन गया। - एक दिन यशस्वती, ज्येष्ठा आदि आयिकाएँ श्रोवर्द्धमान भगवान्की वन्दना करनेको चलीं। वे सब एक वनीमें पहुंचीं होंगी कि पानी बरसने लगा, और खूब बरसा। इससे इस आर्यिका संघको बड़ा कष्ट हुआ। कोई किधर और कोई किधर, इस तरह उनका सब संघ तितिर-बितर हो गया। ज्येष्ठा एक कालगुहा नामकी गुहामें पहुँची। वह उसे एकान्त समझकर शरोरसे भीगे वस्त्रोंको उतार कर उन्हें निचोड़ने लगी। भाग्यसे सात्यकि मुनि भो इसो गुहा में ध्यान कर रहे थे। सो उन्होंने ज्येष्ठा आर्यिकाका खुला शरीर देख लिया। देखते ही विकारभावोंसे उनका मन भ्रष्ट हुआ और उन्होंने अपने शोलरूपी मौलिक रत्नको आर्यिकाके शरीररूपी अग्निमें झोंक दिया। सच है, कामसे अन्धा बना मनुष्य क्या नहीं कर डालता। ___गुराणो यशस्वती ज्येष्ठाकी चेष्टा वगैरहसे उसकी दशा जान गई। और इस भयसे कि धर्मका अपवाद न हो, वह ज्येष्ठाको चेलिनोके पास रख आई। चेलिनीने उसे अपने यहाँ गुप्त रीतिसे रख लिया । सो ठोक ही है, सम्यग्दृष्टि निन्दा आदिसे शासनको सदा रक्षा करते हैं । नौ महिने होनेपर ज्येष्ठाके पुत्र हुआ । पर श्रेणिकने इस रूप में प्रगट किया कि चेलिनीके पुत्र हआ। ज्येष्ठा उसे वहीं रखकर आप पोछो आर्यिकाके संघमें चली आई और प्रायश्चित्त लेकर तपस्विनी हो गई। इसका लड़का श्रेणिकके यहीं पलने लगा। बड़ा होने पर वह और और लड़कोंके साथ खेलनेको जाने लगा। पर संगति इसको अच्छे लड़कोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy