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________________ १५२ आराधना कथाकोश किसी अपराध के ? क्रेध, लज्जा और आत्मग्लानिसे उनकी एक विलक्षण ही दशा हो गई । रानीने जैसे ही रत्नोंको महाराजके सामने रक्खा, महाराजने उसी समय उन्हें अपने और बहुतसे रत्नों में मिलाकर समुद्रदत्तको बुलाया और उससे कहा- अच्छा, देखो तो इन रत्नोंमें तुम्हारे रत्न हैं क्या ? और हों तो उन्हें निकाल लो। महाराजकी आज्ञा पाकर समुद्रदत्तने उन सब रत्नों में से अपने रत्नोंको पहिचानकर निकाल लिया। सच है, सज्जन पुरुष अपनी ही वस्तुको लेते हैं । दूसरोंकी वस्तु उन्हें विष समान जान पड़ती हैं । समुद्रदत्तने अपने रत्न पहिचान लिए, यह देख महाराज उसपर इतने प्रसन्न हुए कि उसे उन्होंने अपना राजसेठ बना लिया । महाराज त्वरित ही दरबार में आये। जैसे ही उनको दृष्टि पुरोहितजो पर पड़ी, उन्होंने बड़ी ग्लानिको दृष्टिसे उनकी ओर देखकर गुस्से के साथ कहा- पापी, ठगी ! मैं नहीं जानता था कि तू हृदयका इतना काला होगा और ऊपरसे ऐसा ढोंगोका वेष लेकर मेरी गरीब और भोली प्रजाको इस तरह धोखे में फँसायगा ? न मालूम तेरी इस कपटवृत्तिने मेरे कितने बन्धुओंको घर-घरका भिखारी बनाया होगा ? ऐ पापके पुतले, लोभके जहरीले सर्प, तुझे देखकर हृदय चाहता तो यह है कि तुझे इसकी कोई ऐसी भयंकर सजा दी जाए, जिससे तुझे भी इसका ठीक प्रायश्चित मिल जाय और सर्व साधारणको दुराचारियोंके साथ मेरे कठिन शासनका ज्ञान हो जाय; उससे फिर कोई ऐसा अपराध करनेका साहस न करे । परन्तु तू ब्राह्मण है, इसलिए तेरे कुलके लिहाजसे तेरी सजाके विचारका भार में अपने मंत्री मण्डल पर छोड़ता हूँ । यह कहकर ही राजाने अपने धर्माधिकारियों की ओर देखकर कहा - " इस पापीने एक विदेशी यात्रीके, जिसका कि नाम समुद्रदत्त है और वह यहीं बैठा हुआ भी है, कीमती पाँच रत्नों को हड़प कर लिया है, जिनको कि यात्रीने समुद्र यात्रा करनेके पहले श्रीभूतिको एक विश्वस्त और राजप्रतिष्ठित समझकर धरोहर के रूप में रक्खे थे । दैवकी विचित्र गति से यात्रा से लौटते समय यात्रीका जहाज एकाएक फट गया और साथ ही उसका सब माल असबाब भी डूब गया । यात्री किसी तरह बच गया। उसने जाकर पुरोहित श्रीभूतिसे अपनी धरोहर वापिस लौटा देनेके लिए प्रार्थना की । पुरोहित के मनमें पापका भूत सवार हुआ । बेचारे गरीब यात्रोको उसने धक्के देकर घरसे बाहर निकलवा दिया । यात्री अपनी इस हालतसे पागल-सा होकर सारे शहर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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