SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीभूति-पुरोहितको कथा १५३ यह पुकार मचाता हुआ महिनों फिरा किया कि श्रीभूतिने मेरे रत्न चुरा लिये, पर उसपर किसीका ध्यान न जाकर उलटा सबने उसे ही पागल करार दिया। उसकी यह दशा देखकर महारानीको बड़ी दया आई । यात्रो बुलाया जाकर उससे सब बातें दर्याफ्त की गई। बादमें महारानीने उपाय द्वारा वे रत्न अपने हस्तगत कर लिये। वे रत्न समुद्रदत्तके हैं या नहीं इसकी परीक्षा करनेके आशयसे उन पाँचों रत्नोंको मैंने बहुतसे और रत्नोंमें मिला दिया। पर आश्चर्य है कि यात्रोने अपने रत्नोंको पहिचान कर निकाल लिये । श्रीभूतिके जिम्में धरोहर हड़पकर जानेका गुरुतर अपराध है। इसके सिवा धोखेबाजी, ठगाई आदि और भी बहुतसे अपराध हैं। इसकी इसे क्या सजा दी जाय, इसका आप विचार करें।" धर्माधिकारियोंने आपसमें सलाहकर कहा-महाराज, श्रीभूति पुरोहितका अपराध बड़ा भारी है । इसके लिए हम तीन प्रकारको सजायें 'नियत करते हैं। उनमेंसे फिर जिसे यह पसन्द करे, स्वीकार करे। या तो इसका सर्वस्व हरण कर लिया जाकर इसे देश बाहर कर दिया जाय, या पहलवानोंकी बत्तोस मुक्कियाँ इस पर पड़ें, या तोन थाली में भरे हुए गोबरको यह खा जाय । श्रीभूतिसे सजा पसन्द करनेको कहा गया। पहले उसने गोबर खाना चाहा, पर खाया नहीं गया, तब मुक्कियाँ खानेको कहा । मुक्कियाँ पड़ना शुरू हुईं । कोई दश पन्द्रह मुक्कियाँ पड़ी होंगी कि पुरोहितजीकी अकल ठिकाने आ गई। आप एकदम चक्कर खाकर जमीन पर ऐसे गिरे कि पीछे उठे ही नहीं। महा आर्तध्यानसे उनकी मृत्यु हुई। वे दुर्गतिमें गये। धनमें अत्यन्त लम्पटताका उन्हें उपयुक्त प्रायश्चित्त 'मिला । इसलिये जो भव्य पुरुष हैं, उन्हें उचित है कि वे चोरोको अत्यन्त दुःखका कारण समझकर उसका परित्याग करें और अपनी बुद्धिको पवित्र जैनधर्मको ओर लगावें, जो ऐसे महापापोंसे बचानेवाला है। वे जिनभगवान्, जो सब सन्देहोंके नाश करनेवाले और स्वर्गके देवों और विद्याधरों द्वारा पूज्य हैं, वह जिनवाणी जो सब सुखोंको खान है और मेरे गुरु श्रोप्रभाचन्द्र, ये सब मुझे मंगल प्रदान करें, मुझे कल्याणका मार्ग बतलावें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy