SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीभूति-पुरोहितकी कथा १५१ खेल में लग गई । अबकी बार उसने पुरोहितजीका जनेऊ जोत लिया ओर किसी बहानेसे उस दासीको बुलाकर चुपकेसे जनेऊ देकर भेज दिया। दासीके वापिस आने तक रानी और भो पुरोहितजीको खेल में लगाये रहो । इतनेमें दासी भी आ गई। उसे प्रसन्न देखकर, रानीने अपना मनोरथ पूर्ण हुआ समझा। उसने उसी समय खेल बन्द किया और पुरोहितजीकी अंगूठी और जनेऊ उन्हें वापिस देकर वह बोलोआप सचमुच खेलनेमें बड़े चतुर हैं। आपकी चतुरता देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुई । आज मैंने सिर्फ इस चतुरताको देखनेके लिए हो आपको यह कष्ट दिया था । आप इसके लिए मुझे क्षमा करें । अब आप खुशोके साथ जा सकते हैं। बेचारे पुरोहितजी रानीके महलसे बिदा हुए। उन्हें इसका कुछ भी पता नहीं पड़ा कि रानीने मेरी आँखोंमें दिन दहाड़े धूल झोंककर मुझे कैसा उल्लू बनाया है । बात असल में यह थी कि रानीने पहले पुरोहितजीकी जीती हुई अँगूठी देकर दासीको उनकी स्त्रीके पास समुद्रदत्तके रत्न लेनेको भेजा, पर जब पुरोहितजीकी स्त्रीने अँगूठी देखकर भी उसे रत्न नहीं दिये तब यज्ञोपवीत जीता और उसे दासीके हाथ देकर फिर भेजा। अबकी बार रानीका मनोरथ सिद्ध हुआ। पुरोहितजोको स्त्रीने दासीको बातोंसे डरकर झटपट रत्नोंको निकाल दासीके हवाले कर दिया। दासीने लाकर रत्नोंको रानीको दे दिये। रानी प्रसन्न हुई। पुरोहितजी तो खेलते रहे और उधर उनका भाग्य फूट गया, इसकी उन्हें रत्तीभर भी खबर नही पड़ी। रानीने रत्नोंको ले जाकर महाराजके सामने रख दिये और साथ ही पुरोहितजीके महलसे रवाना होनेकी खबर दी। महाराजने उसी समय उनके गिरफ्तार करनेकी सिपाहियोंको आज्ञा की। बेचारे पूरोहितजो अभी महलके बाहर भी नहीं हुए थे कि सिपाहियोंने जाकर उनके हाथोंमें हथकड़ी डाल दी और उन्हें दरबारमें लाकर उपस्थित कर दिया। पुरोहितजी यह देखकर भौंचकसे रह गये । उनको समझमें नही आया कि यह एकाएक क्या हो गया और कौन मैंने ऐसा भारी अपराध किया जिससे मुझे एक शब्द तक न बोलने देकर मेरी यह दशाकी गई । वे हतबुद्धि हो गये। उन्हें इस बातका और अधिक दुःख हुआ कि मैं एक राजपुरोहित, ऐसा वैसा गैर आदमी नहीं और मेरो यह दशा? और वह बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy