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________________ १४८ आराधना कथाकोश रखनेका विचारकर यह सिंहपुर आया। यहाँ श्रीभूतिसे मिलकर इसने अपना विचार उसे कह सुनाया । श्रीभूतिने इसके रत्नोंका रखना स्वीकार कर लिया । समुद्रदत्तको इससे बड़ी खुशी हुई और साथ ही वह उन रत्नोंको श्रीभूतिको सौंपकर आप रत्नद्वीपके लिए रवाना हो गया। वहाँ कई दिनों तक ठहरकर इसने बहुत धन कमाया। जब यह वापिस लौटकर जहाज द्वारा अपने देशकी ओर आ रहा था तब पापकर्मके उदयसे इसका जहाज टकराकर फट गया । बहुतसे आदमो डूब मरे। बहुत ठोक लिखा है, कि बिना पुण्यके कभी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । समुद्रदत्त इस समय भाग्यसे मरते-मरते बच गया। इसके हाथ जहाजका एक छोटा-सा टुकड़ा लग गया। यह उसपर बैठकर बड़ी कठिनताके साथ किसी तरह रामराम करता किनारे आ लगा। यहाँसे यह सीधा श्रीभूति पुरोहितके पास पहुँचा। श्रोभूति इसे दूरसे देखकर हो पहिचान गया। वह धूतं तो था ही, सो उसने अपने आसपासके बैठे हुए लोगोंसे कहा-देखिये, वह कोई दरिद्र भिखमंगा आ रहा है। अब यहाँ आकर व्यर्थ सिर खाने लगेगा । जिनके पास थोड़ा बहुत पैसा होता है या जिनको मान मर्यादा लोगोंमें अधिक होती है तो उन्हें इन भिखारियोंके मारे चैन नहीं । एक न एक हर समय सिरपर खड़ा ही रहता है। हम लोगोंने जो सुना था कि कल एक जहाज फटकर डूब गया है, मालूम होता है यह उसी परका कोई यात्री है और इसका सब धन नष्ट हो जानेसे यह पागल हो गया जान पड़ता है। इसकी दुर्दशासे ज्ञात होता है कि यह इस समय बड़ा दुखी है और इसीसे संभव है कि यह मुझसे कोई बड़ी भारी याचना करे। श्रीभूति तो इस तरह लोगोंको कह ही रहा था कि समुद्रदत्त उसके सामने जा खड़ा हुआ । वह श्रीभूतिको नमस्कार कर अपनी हालत सुनाना आरम्भ करता है कि इतने में श्रीभूति बोल उठा कि मुझे इतना समय नहीं कि मैं तुम्हारी सारी दुःख कथा सुनं । हाँ तुम्हारी इस हालतसे जान पड़ता है कि तुमपर कोई बड़ी भारी आफत आई है। अस्तु, मुझे तुम्हारे दुःखमें समवेदना है। अच्छा जाइए, में नौकरोंसे कहे देता हूँ कि वे तुम्हें कुछ दिनोंके लिए खानेका सामान दिलवा दें। यह कहकर ही उसने नौकरोंकी ओर मुंह फेरा और आठ दिन तकका खानेका सामान समुद्रदत्तको दिलवा देनेके लिए उनसे कह दिया। बेचारा समुद्रदत्त तो श्रीभूतिकी बातें सुनकर हत-बुद्धि हो गया। उसे काटो तो खुन नहीं। उसने घबराते-घबराते कहा-महाराज, आप यह क्या करते हैं ? मेरे जो आपके पास पाँच रत्न । रवखे हैं, मुझे तो वे ही दीजिए। में आपका सामान-वामान नहीं लेता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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