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________________ वसुराजाकी कथा १४७ लो। मुनि होकर उसने अनेक जीवोंको कल्याणके मार्ग में लगाया और तपस्या द्वारा पवित्र रत्नत्रयकी आराधनाकर आयुके अन्त में वह सर्वार्थसिद्धि गया, जो कि सर्वोत्तम सुखका स्थान है। सच है, जैनधर्मकी कृपासे भव्य पुरुषोंको क्या प्राप्त नहीं होता ? निरभिमानी नारद अपने धर्मपर बड़ा दृढ़ था। उसने समय-समय पर और-और धर्मवालोंके साथ शास्त्रार्थ में विजय प्राप्तकर जैनधर्मको खब प्रभावना की। वह जिनशासनरूप महान् समुद्रके बढ़ानेवाला चन्द्रमा था। ब्राह्मणवंशका एक चमकता हुआ रत्न था । अपनी सत्यताके प्रभावसे उसने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी। अन्तमें वह तपस्याकर सर्वार्थसिद्धि गया। वह महात्मा नारद सबका कल्याण करे। २७. श्रीभूति-पुरोहितकी कथा जिन्हें स्वर्गके देवता बड़ी भक्तिके साथ पूजते हैं, उन सुखके देनेवाले जिनभगवान्को नमस्कारकर में श्रीभूति-पुरोहितका उपाख्यान कहता हूँ, जो चोरो करके दुर्गतिमें गया है। सिंहपुर नामका एक सुन्दर नगर था। उसका राजा सिंहसेन था। सिंहसेनको रानीका नाम रामदत्ता था। राजा बुद्धिमान् और धर्मपरायण था। रानी भी बड़ी चतुर थी। सब कामोंको वह उत्तमताके साथ करती थी। राजपुरोहित श्रीभूति था। उसने मायाचारीसे अपने सम्बन्धमें यह बात प्रसिद्ध कर रक्खी थी कि मैं बड़ा सत्य बोलनेवाला है। बेचारे भोले लोग उस कपटीके विश्वास में आकर अनेक बार ठगे जाते थे। पर उसके कपटका पता किसीको नहीं पड़ पाता था। ऐसे ही एक दिन एक विदेशी उसके चंगुलमें आ फैसा। इसका नाम समुद्रदत्त था। यह पाखण्डपुरका रहनेवाला था। इसके पिता सुमित्र और माता सुमित्रा थी। समुद्रदत्तकी इच्छा एक दिन व्यापारार्थ विदेश जानेको हुई। इसके पास पांच बहुत कीमती रत्न थे। पाखण्डपुरमें कोई ऐसा विश्वस्त पुरुष इसके ध्यानमें नहीं आया, जिसके पास यह अपने रत्नोंको रखकर निश्चित हो सकता था। इसने श्रोभूतिको प्रसिद्धि सुन रक्खी थी। इसलिए उसके पास रत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016063
Book TitleAradhana Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size21 MB
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