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________________ ८० : जैम पुराणकोश काकली - संगीत की चौदह मूर्च्छनाओं का एक स्वर । हपु० १९.१६९ काकिणी —- चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक रत्न । यह सूर्य के समान प्रकाश एवं ताप से युक्त होता है। शिलापट्ट आदि पर लेख आदि अंकित करने के लिए प्राचीन काल में इसका व्यवहार किया जाता था । मपु० ३२.१५, १४१, ३७.८५-८५ हपु० ११.२७ काकोवर - जयकुमार की कथा में उल्लिखित एक सर्प । यह मरकर गंगा नदी में काली नाम का जलदेवता हुआ था। मपु० ४३.९२-९५ काकोद - इस नाम से प्रसिद्ध म्लेच्छ । ये अत्यन्त भयंकर, मांसभोजी और दुर्जेय थे । पपु० ३४.७२ काक्षि - भरतक्षेत्र के पश्चिम आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.७२-७३ कागन्धु — भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । भरतेश की सेना ने इस नदी को पार किया था । मपु० २९.६४ कायवाह--पालकी वाहक महार आदि मपु० ८.१२१ काणभिक्ष - कथाग्रन्थ-निर्माता जिनसेन का पूर्ववर्ती आचार्य । मपु० १.५१ कात्यायनी - तीर्थंकर नेमिनाथ के संघ की प्रमुख आर्यिका । मपु० ७१. १८६ कादम्बिक - हलवाई । मपु० ८.२३४ कानीन - कन्या अवस्था में उत्पन्न कुन्ती का पुत्र कर्ण । हपु० ५०. ८७-८८ कान्त - (१) लंका-द्वीप का उपद्रव आदि से रहित स्थान । पपु० ६. ६७-६८ (२) राम का एक योद्धा । पपु० ५८.२१ (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६८ काल-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्मृत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१६८ कालपुर (१) पुष्करार्ध द्वीप में पश्चिम विदेहक्षेत्र के पद्मक देश का एक नगर । मपु० ४७. १८० (२) वंग देश का एक नगर । मपु० ७५.८१ कान्तवती - मनोरम नामक राष्ट्र में शिवंकरपुर नगर के राजा अनिलवेग की रानी भोगवती की जननी । मपु० ४७.४९-५० कान्तशोक- पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित विजयावती नगरी के समीपवर्ती मत्तकोकिल नामक ग्राम का स्वामी । यह बाली के पूर्वभव के जीव सुप्रभ का पिता था। पपु० १०६.१९० - १९७ कान्ता - ( १ ) मथुरा नगरी के निवासी भानु और उसकी स्त्री के तीसरे पुत्र भानुषेण की स्त्री ०३२.९६-१९ (२) भरत की भाभी । पपु० ८३.९४ कान्तारचर्या -वन में ही आहार करने की प्रतिज्ञा । दमघर और सागरसेन मुनियों ने यह प्रतिज्ञा की थी । मपु० ८.१६८ कान्ति - ( १ ) रावण की एक रानी । पपु० ७७.१५ (२) शरीर-सौन्दर्य मपु० १५.२१५ कान्तिमान् सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५. २०२ कापिष्ठ — ऊर्ध्वलोक में स्थित आठवां स्वर्ग । माहेन्द्र स्वर्ग के अन्त से Jain Education International काफी-कामदेव इस स्वर्ग तक की लम्बाई एक रज्जु प्रमाण है । मपु० ५९.२३७, पपु० १०५.१६६ - १६८, हपु० ४.१४-१५ कापिष्ठलायन - गजपुर ( हस्तिनापुर ) नगर का निवासी द्विज, गौतम का पिता । हपु० १८.१०३-१०४ कापोतलेश्या - एक अशुभ लेश्या । पहली, दूसरी ओर तीसरी पृथिवी के ऊर्ध्वभाग के निवासी नारकी इस लेश्या से युक्त होते हैं । हपु० ४.३४३ काम - (१) प्रद्युम्न । हपु० ४८.१३, मपु० ७२.११२ (२) ग्यारह रुद्रों में दसवाँ रुद्र । पु० ६०.५७१-५७२ (३) चार पुरुषार्थी में तीसरा पुरुषार्थं । इन्द्रियविषयानुरागियों की मानसिक स्थिति । कामासक्त मानव चंचल होते हैं और मूखं ही इनके अधीन होते हैं, विद्वान नहीं मपु० ५१.६, ५० ८२.७७, ०३.१९३, ९.१२७ (४) रावण का योद्धा । इसने राम के योद्धा दृढ़रथ के साथ युद्ध किया था । पपु० ५७.५४-५६, ६२.३८ कामग— बलाहक देव द्वारा निर्मित एक विमान । यह मेघाकार मोतियों की लटकती हुई मालाओं से शोभित, क्षुद्र घण्टियों से ध्वनित, और रत्नजटित था । मपु० २२.१५-१६, पपु० ५.१६७ कामगामिनी—- एक विद्या। रावण ने उसे प्राप्त किया था। पपु० ७.३२५-३३२ कामजित — भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २४.४० कामजेता --- भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४० कामतीवाभिनिवेश- स्वदारसन्तोषव्रत के पाँच अतिचारों में पांचवी अतिचार । हपु० ५८. १७४- १७५ कामव-- (१) ग्यारह रुद्रों में पाँचवाँ रुद्र । हपु० ६०.५७१ (२) सोधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १६७ कामदत्त- श्रावस्ती नगरी का एक श्रेष्ठी । इसने जिनमन्दिर के आगे मृगध्वजी केवली तथा महिष को और जिनमन्दिर में कामदेव तथा रति की मूर्तियाँ स्थापित करायी थीं। इस स्थापना का उद्देश्य यह या कि कामदेव और रति की मूर्तियाँ देखने के लिए अधिक संख्या में आने वाले लोग जिन मूर्तियों एवं मृगवन केवल के भी दर्शन करें जिससे उन्हें पुण्य लाभ हो । हपु० २८.१८, २९.१-६ कामदायिनी -- रावण को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३२५ कामदृष्टि - भरतेश चक्रवर्ती का गृहपति रत्न । यह उनके चौदह रत्नों में एक था। इसने और स्थपति रत्न रत्नभद्र ने उन्मग्नजला और निमग्नजला दोनों नदियों पर पुल बनाया था जिस पर होकर भरतेश की सेना उत्तर भारत में पहुँची थी । हपु० ११.२६-२९ महापुराण में कामदृटि को कामवृष्टि कहा है । मपु० ३७.१७६ कामदेव - (१) श्रावस्ती नगरी के श्रेष्ठी कामदत्त के वंश में उत्पन्न एक श्रेष्ठी निमित्तशानियों के निर्देशानुसार इसने अपनी पुत्री बन्धुमती का विवाह वसुदेव के साथ किया था। पु० २९.६-१२ I For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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