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________________ कांचनक-काकन्दी जैनपुराण कोश : ७९ (५) विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित साठ नगरियों में उन्तीसवीं नगरी। मपु०६३, १०५, हपु० २२.८८ (६) रुचकवर द्वीप के रुचकवर पर्वत के पूर्वदिशावर्ती आठ कूटों में दूसरा कूट । यहाँ बैजयन्ती देवी निवास करती है। हपु० ५.६९९७०५ (७) मेरु पर्वत के सौमनस पर्वत पर स्थित सात कूटों में छठा कूट । हपु० ५.२२१ (८) धृतराष्ट्र और उसकी रानी गांधारी के सौ पुत्रों में सत्तानवैवां पुत्र । हपु० ८.२०५ (९) रुचक गिरि की उत्तर दिशा का एक कुट । यह वारुणी देवी की निवासभूमि है । हपु० ५.७१६ कांचनक-मेरु पर्वत के कूटों पर निवास करनेवाले देव । ये पर्वतों पर निर्मित क्रीडागृहों में क्रीडा करते रहते है। हपु० ५.२०३-२०४ कांचनकूट-(१) सीता-सीतोदा नदियों के तटों पर स्थित इस नाम के दस पर्वत । इन पर्वतों की ऊँचाई सौ योजन, विस्तार मूल में सौ योजन, मध्य में पचहत्तर योजन और अग्रभाग में पचास योजन है । हपु० ५.२००-२०१ (२) रुचकगिरि की पूर्व दिशा में स्थित आठ कूटों में दूसरा कूट । यह बैजयन्ती देवी की निवासभूमि है । हपु० ५.७०४-७०५ (३) सौमनस पर्वत का एक कूट । हपु० ५.२२१ कांचनतिलक-जम्बूद्वीप सम्बन्धी विदेहक्षेत्र के कच्छ देश में स्थित विज याध पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । मपु० ६३.१०५ कांचनदंष्ट-वसुदेव की पत्नी बालचन्द्रा का पिता । हपु० ३२.१७-२० कांचनपुर-(१) कलिंग देश का एक नगर । हपु० २४.११ (२) विजयाध पर्वत को उत्तरश्रेणी का एक नगर । उत्तरदिशा का लोकपाल कुबेर इसका रक्षक था। राम-रावण युद्ध के समय यहाँ का स्वामी रावण को सहायता के लिए आया था। मपु० ४७.७८, पपु० ७.२१२-२१३, ५५.८४-८८, हपु० २२.८८ (३) विदेह का एक नगर । मपु० ४७.७८ कांचनभद्र-अयोध्या-निवासी समुद्र (सेठ) तथा उसकी भार्या धारिणी का पुत्र तथा पूर्णभद्र का अनुज । श्रावकधर्म धारण करने के प्रभाव से ये दोनों भाई सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। वहाँ से च्युत होकर ये पुनः अयोध्या में ही राजा हेमनाभ और उसकी रानी अमरावती के मधु और कैटभ नाम से प्रसिद्ध पुत्र हुए। पपु० १०९.१२९-१३२ कांचनमाला-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी के मेघकूट नगर के विद्याधरों के राजा कालसंबर की रानी । इसने शिला के नोचे दबे हुए शिशु प्रद्य म्न को नगर में लाकर उसका देवदत्त नाम रखा था। बड़ा होने पर एक समय यह प्रद्युम्न को देखकर कामासक्त भी हो गयी थी। इसने प्रद्य म्न से सहवास हेतु प्रार्थना भी को थी किन्तु जब उसे यह ज्ञात हुआ कि यह व्रती है और उसके सहवास के योग्य नहीं है तब उसने उसे लांछन लगाकर पति से कहा कि यह कुचेष्टायुक्त है। कालसंवर ने उसकी बात का विश्वास करके प्रद्य म्न को मारने की योजना बनायी पर वह सफल नहीं हो सका। मपु० ७२. ५४-६०, ७२-८८ कांचनरय-(१) जरासन्ध का एक पुत्र। इसके अनेक भाई थे। हपु० ५२.२९-४० (२) कांचनस्थान नगर का राजा । शतदा रानी से उत्पन्न इसकी मन्दाकिनी और चन्द्रभाग्या नाम की दो कन्याएं थीं। ज्येष्ठा मन्दाकिनी ने अनंगलवण को और कनिष्ठा चन्द्रभाग्या ने मदनांकुश को वरा था। पपु० ११०.१, १८-१९ कांचनलता-पलाश-द्वीप में स्थित पलाशनगर के राजा महाबल की रानी, पद्मलता की जननी । मपु० ७५.१०८-११८ । कांचनस्थान-एक नगर। यह लवणांकुश की रानी मन्दाकिनी और मदनांकुश की रानी चन्द्रभाग्या की जन्मभूमि था । पपु० ११०.१, १८-१९ कांचना-(१) जयकुमार और सुलोचना के शील की परीक्षा के लिए रविप्रभ नामक देव के द्वारा प्रेषित एक देवी । यह उनके शील को डिगा नहीं सकी । मपु० ४७.२५९-२६१ पापु० ३.२६३ (२) एक नदी । मपु० ६३.१५८ (३) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा धनरथ को दूसरी रानी मनोरमा की दासी । मपु० ६३.१४२-१४४, १५०-१५२ (४) रुचकगिरि की पश्चिम दिशा में स्थित आठ कूटों में पांचवें कुमुद नामक कूट की निावसिनी देवी । हपु० ५.७१३ कांचनाभा-अरिष्टपुर नगर के राजा प्रियव्रत की प्रथम रानी, अनुन्धर __ की जननी । पपु० ३९.१४८-१४९, १५१ कांची-कटि का आभूषण । इसकी कई लड़ियाँ होती है। शब्दमयी बनाने के लिए इसमें घुघरू भी जोड़ दिये जाते हैं। मपु० ७.१२९, १२.२९-३०, १४.२१३ कांचीवाम-पट्टेदार करधनी । मपु० ८.१३ कांचीपुर-जम्बूद्वीप में स्थित भरतक्षेत्र के कलिंग देश का एक नगर । मपु० ७०.१२७ कांडकप्रपात-गंगा नदी के पास की एक गुहा । भरतेश की सेना ने इस गुहा में प्रवेश करके गंगा को पार किया था । मपु० ६२.१८८ काकजंघ-कौशल देश सम्बन्धी साकेत नगर का निवासी मातंग । पूर्व भव के अपने पुत्र पूर्णभद्र द्वारा समझाये जाने पर इसने विधिपूर्वक संन्यास धारण कर लिया था, जिसके फलस्वरूप मरकर यह नन्दीश्वर द्वीप में कुबेर हुआ । मपु० ७२.२५-३३ काकन्दी-(१) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को नगरी, तीर्थकर पुष्पदन्त की जन्मभूमि । मपु० ५५.२३-२८, पपु० २०.४५ (२) लवण और अंकुश के पूर्वभव के जाव प्रियंकर और हितंकर की निवासभूमि । पपु० १०८.७-४६ (३) रतिवर्धन भी यहाँ का राजा था। उसने काशी नरेश कशिपु की सहायता से अपना खोया राज्य प्राप्त किया था। पपु० १०८.७-३० Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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