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________________ ७८ : जैन पुराणकोश कल्याणजय-कांचन किन्तु विद्याधर की पत्नी सर्वश्री ने इसे शान्त कर दिया था। पपु० १३.८६-८९ (२) तीथंकरों के पंचकल्याणक । मपु० ६.१४३ (३) विवाह । मपु० ७१.१४४, ६३.११७ (४) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९३ कल्याणजय-समवसरण की वेदिकाओं से बद्ध वीथिर्यों के बीच का स्थान । यह प्रकाशमय कदलीवृक्षों से सुशोभित रहता है। हपु० ५७.६७ कल्पाणपूर्व-चौदह पूर्वो में ग्यारहवाँ पूर्व । इसमें छब्बीस करोड़ पद हैं । इन पदों में सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी देवों के संचार का, सुरेन्द्र और असुरेन्द्रकृत सठ शलाकापुरुषों के कल्याण का तथा स्वप्न, अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण और छिन्न इन अष्टांग निमित्तों और अनेक शकुनों का वर्णन है। हपु० २.९९, १०.११५-११७ कल्याणप्रकृति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९४ कल्याणमाला-राजा बालिखिल्य की पुत्री। अपने पिता की अनुपस्थिति में यह पुरुष के वेश में राज्य का संचालन करती थी। राम, लक्ष्मण और सीता से इसकी भेंट होने पर इसने अपना यह गुप्त रहस्य प्रकट कर दिया था कि जब वह गर्भ में थी उस समय उसके पिता का म्लेच्छ राजा के साथ युद्ध हुआ था और पराजित होने पर सिंहोदर ने बालिखिल्य से कहा था कि यदि उसकी रानी के गर्भ से पुत्र हो तो वह राज्य करे। दुर्भाग्य से यह पुत्री हुई किन्तु मंत्री ने सिंहोदर को पुत्र हुआ बताकर उसे राज्य दिला दिया। उसके पिता बन्दी थे। यह रहस्य जानकर राम ने उसके पिता को मुक्त कराया था। इसने लक्ष्मण को अपने पति के रूप में स्वीकार किया था। यह लक्ष्मण की आठ महादेवियों में चौथी महादेवी थी। इसके मंगल नाम का पुत्र हुआ था । पपु० ३४.१-९१, ८०.११०-११३, ९४.२०-२३, ३२ कल्याणलक्षण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. के दिन एक ग्रास और अमावस्या के दिन उपवास इस प्रकार यह व्रत इकतीस दिनों में पूर्ण होता है । हपु० ३४.९०-९१ कवलाहार-क्षुधा को शान्त करने के लिए कवल प्रमाण पासों के द्वारा किया जानेवाला आहार । मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर कवला हार की आवश्यकता नहीं पड़ती । मपु० २५.३९ कवाटक-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में स्थित मलय पर्वत के आगे का एक पर्वत । इसके निकटवर्ती राज्य को भरतेश के सेनापति ने जीता था। मपु० २९.८९ कवि-(१) धर्मकथा से युक्त काव्य के रचयिता। जो कवि मनोहर रीतियों से सम्पन्न सुश्लिष्ट पद-रचनावाले और धर्म-कथा से युक्त प्रबन्ध काव्यों की रचना करते हैं वे महाकवि होते हैं। मपु० १. ६२,९८ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४३ कवि परमेश्वर-वागर्थ संग्रह नामक पुराण का रचयिता कवि । मपु० १.६० कशिपु-काशी नगरी का उग्रवंशी राजा । यह काकन्दी नगरी के राजा रतिवर्द्धन का न्यायशील सामन्त था। इसने रतिवर्द्धन का राज्य हड़पनेवाले उसके मंत्री सर्वगुप्त को पराजित कर रतिवर्द्धन को उसका राज्य पुनः प्राप्त कराया था । पपु० १०८.७-३० कषाय-जीवों के सद्गुणों को क्षीण करनेवाले दुर्भाव । ये मोक्षसुख की प्राप्ति में बाधक होने से त्याज्य है । ये मूल रूप से चार है-क्रोध, मान, माया, और लोभ । इन्हीं के कारण जीव संसार में भटक रहा है । क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को सरलता से और लोभ को संतोषवृत्ति से जीता जाता है । अनन्तानुबन्धो,अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन चारों के साथ क्रोध, मान, माया और लोभ को योजित करने से इसके सोलह भेद होते हैं । इन भेदों के साथ तथा नौ नौ कषायों के मिश्रण से पच्चीस भेद भी किये गये हैं। मपु० ३६.१२९, १३९, ६२.३०६-३०८, ३१६-३१७, पपु० १४.११०, पापु० २२.७१, २३.३० वीषच० ११.६७ कांक्ष-प्रथम पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में स्थित सीमन्तक नामक इन्द्रक बिल की पूर्व दिशा में स्थित महानरक । यह दुवर्ण नारकियों से व्याप्त रहता है । हपु० ४.१५१-१५२ कांचन-(१) सौधर्म और ऐशान स्वर्गों का नवम विमान । मपु०८. २१३, हपु० ६.४४-४७ (२) एक गुहा । यह रश्मिवेग मुनि को तपोभूमि है । यहीं श्रीधरा और यशोधरा आर्यिकाएं उनके दर्शनार्थ आयी थीं । मपु० ५९.२३३२३५, हपु० २७.८३-८४ (३) अमररक्ष के महाबुद्धि और पराक्रमधारी पुत्रों द्वारा बसाये गये दस नगरों में नवां नगर । लक्ष्मण ने इस नगर को अपने आधीन किया था । पपु० ५.३७१-३७२, ९४.३-९ (४) समस्त ऋद्धियों और भोगों का दाता, वन-उपवन से विभूषित, लंका का एक द्वीप । पपु० ४८.११५-११६ कल्याणवर्ण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १९३ कल्याणांगण-समवसरण की भूमि । हपु० ५७.६७ कल्याणाभिषव-विवाहाभिषेक । मपु० ७.२२६ कल्लीवनोपान्त-भरतक्षेत्र की पश्चिम दिशा में स्थित एक देश । हपु० ११.७१ कवचो-राजा धृतराष्ट्र और उसकी रानी गान्धारी के सौ पुत्रों में तिह त्तरवाँ पुत्र । पापु० ८.२०२ कवल-एक हजार चावलों के प्रमाण का एक ग्रास । हपु० ११.१२५ कवलचान्द्रायणवत-कवल प्रमाण भोजन का एक व्रत । अमावस्या के दिन उपवास पश्चात् प्रतिपदा के दिन एक कवल, आगे प्रतिदिन एक-एक ग्रास की वृद्धि से चतुर्दशी के दिन चौदह ग्रास, पूर्णिमा के दिन उपवास और फिर एक-एक ग्रास प्रतिदिन कम करते हुए चतुर्दशी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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