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________________ लगसेना-कल्याण कलिंगसेना -- चम्पापुरी की एक प्रसिद्ध गणिका । यह वसन्तसेना गणिका की जननी थी । हपु० २१.४१ कलिदकन्या-यमुना नदी । मपु० ७०.३४६ , कलिवसेना - राजा जरासन्ध की रानी, जीवद्यशा की जननी । इसका अपरनाम कालिन्दसेना था । मपु० ७०.३५२-३५४, पु० १८.२४ कलिन --- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०६ कलियुग — वर्द्धमान के निर्वाण के बाद तीन वर्ष आठ मास, पन्द्रह दिन बीत जाने पर आनेवाला काल । वृषभदेव के समवसरण की दिव्य ध्वनि के अनुसार इसमें जनसमूह प्रायः हिमोपदेशी महारम्भों में लीन, जिनशासन का निन्दक, निर्ग्रन्थ मुनि को देख क्रोध करनेवाला, जातिमद से युक्त, भ्रष्ट और समीचीन मार्ग का विरोधी होगा । मपु० ४१.४७, पपु० ४.११६-१२० कलिलन - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९४ कलोपनता - संगीत के मध्यम ग्राम की मूच्र्च्छना । हपु० १९, १६३ कल्किराज — पाटलिपुत्र नगर में राजा शिशुपाल और उसकी रानो पृथिवीसुन्दरी का चतुर्मुख नामक पुत्र । दुःषमा काल के एक हजार वर्ष बीत जाने पर मघा ( माघ ) संवत्सर में यह उत्पन्न होगा तथा इस नाम से प्रसिद्ध होगा । इसकी उत्कृष्ट आयु सत्तर वर्ष तथा राज्यकाल चालीस वर्ष होगा । यह पाखण्डी साधुओं के ९६ वर्गों को अपने अधीन करनेवाला होगा । यह निर्ग्रन्थ साधुओं के आहार का प्रथम ग्रास कर के रूप में लेना चाहेगा । इसकी इस प्रवृत्ति से असंतुष्ट होकर कोई सम्यग्दृष्टि असुर इसे मार डालेगा और यह मरकर रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवी में जायेगा, वहाँ एक सागर प्रमाण इसकी आयु होगी । इसका पुत्र अजितंजय अपनी पत्नी वालना के साथ इसी असुर की शरण में पहुँचेगा और सम्यग्दर्शन स्वीकार करेगा। इस कल्की के बाद प्रति एक-एक हजार वर्ष के पश्चात् बीस कल्की राजा और होंगे। अन्तिम ( इक्कीसवाँ ) कल्की जलमन्थन होगा । मपु० ७६.३९७-४३१, हपु ० ६०.४९२-४९४ कल्प (१) उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों कालों का बीस कोड़ा कोडी सागर प्रमाण काल । मपु० ३.१४-१५, ७६.४९३ - ४९४, पु० ७.६३ (२) स्वर्गं । सरागी श्रेष्ठ संयमी और सम्यग्दर्शन से विभूषित मुनि तथा श्रावक मरकर स्वर्ग में जाते हैं। ये सोलह होते हैं । हपु० ३. १४९, वीवच० १७.८९-९० दे० स्वर्ग (३) उग्रायणीयपूर्व की चौदह वस्तुवों में सातवीं वस्तु पु० १०.७७-७९ 'कल्पतरु - इच्छाओं के पूरक भोगभूमि के वृक्ष । ये दस प्रकार के होते हैं - १. मद्यांग २. तूर्यांग ३. विभूषांग ४. स्रजांग ५. ज्योतिरंग ६. दीपांग ७. गृहांग ८. भोजनांग ९. पात्रांग १०. वस्त्रांग । भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अवसर्पिणी काल के प्रथम सुषमा- सुषमा नामक काल में सभी जातियों के कल्पवृक्ष विद्यमान थे। ये न तो वनस्पतिकायिक होते हैं और न देवों द्वारा अधिष्ठित । वृक्षाकार रूप में पृथ्वी के सार स्वरूप सामान्य वृक्षों की भाँति इष्ट फल प्रदान कर Jain Education International जैन पुरानकोश: ७७ लोक का उपकार करते हैं । इन वृक्षों को कल्पपादप और कल्पद्रुम भी कहते हैं। मपु० ३.३५-४० ९.४९-५१ कल्पद्रुम – (१) दे० कल्पतरु । मपु० ३.३७ (२) अर्हत् पूजा का एक भेद । यह "यज्ञ" का भी बोधक है । मपु० ३८.२६, ३१ कल्पनिवासिनी — स्वर्ग की देवांगना । हपु० २.७७ कल्पपादप —– कल्पवृक्ष । अपरनाम कल्पतरु, कल्पद्रुम । मपु० ३.३८ दे० कल्पतरु कल्पपुर – एक नगर | इसे राजा पौलोम के पुत्र महीदत्त ने बसाया था । हपु० १७.२८-२९ कल्प भूमि - समवसरण भूमि से एक हाथ ऊँची भूमि । समवसरण भूमि साधारण भूमि से एक हाथ ऊँची होती है । हपु० ५७.५ कल्पयन — समवसरण भूमि में दूसरे फोट के बोषियों में स्थित देदीप्यमान वन इसमें २२.२४३-२४७ भीतर धूपपटों के बाद को कल्पवृक्ष होते हैं। मपु० कल्पवास स्तूप - कल्पवासियों द्वारा रचित समवसरण का एक स्तूप । हपु० ५७.९९ कल्पवासी - सौधर्म से अच्युत स्वर्ग पर्यन्त स्वर्गो में रहनेवाले वैमानिक देव । मिथ्यात्व से मलिन बाल-तप करनेवाले तापसियों के अतिरिक्त अकामनिर्जरा से युक्त बन्धनबद्ध तियंच भी ऐसे देव होते हैं । हपु० ३.१३३-१३५, १४८ कल्प-व्यवहार- अंगबाह्यश्रुत के चौदह प्रकीर्णकों में नवम प्रकीर्णक । इसमें तपस्वियों के करणीय कार्यों की विधि का तथा अकरणीय कार्यों के हो जाने पर उनकी प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन किया गया है । हपु० १० १२५, १३५ कल्पवृक्ष - (१) चक्रवर्ती द्वारा सम्पन्न की जानेवाली एक पूजा । इसमें याचकों को मन चाहा दान दिया जाता है। यह पूजा आठ दिन तक की जाती है । मपु० ७.२२०, ७३.५९ दे० कल्पद्रुम (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २१३ (३) एक विशिष्ट जाति के वृक्ष । पपु० ३.६३ दे० कल्पतरु कल्पकल्प — अंगवात के चौदह प्रकीर्णकों में इस प्रकीर्णक। इसमें करणीय और अकरणीय दोनों प्रकार के कार्यों का निरुपण हैं । हपु० २.१०१-१०५, १०.१३६ कल्पाग—इच्छित फलदायी कल्पवृक्ष । मपु० ५९.३ कल्पातील जय क नय अनुविधा तथा पांच अनुत्तर विमानवासी देव । ये अहमिन्द्र होते हैं । संसार के सर्वाधिक सुखों को पाकर भी ये विरागी होते हैं । मपु० ५७.१६, हपु० ३.१५०-१५१ कल्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९३ कल्याण -- (१) मुनि आनन्दमाल का भाई ऋद्धिधारी साधु । अपने भाई के निन्दक इन्द्र विद्याधर को इसने शाप दिया था कि आनन्दमाल का तिरस्कार करने के कारण उसे भी तिरस्कार मिलेगा । अपने दीर्घ और उष्ण निःश्वास से यह उसे दग्ध ही कर देना चाहता था For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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