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________________ कर्मकुर-कलिग कर्मान्वयक्रिया-श्रावकों की त्रिविध क्रियाओं में तीसरे प्रकार की क्रिया अपरनाम कन्वयक्रिया । ये सदगृहित्व को आदि लेकर सिद्धि पर्यन्त सात होती है । मपु० ६३.३०२, ३०५ दे० कर्झन्वयक्रिया कर्मारवी-संगीत संबंधी मध्यमग्राम के आश्रित ग्यारह जातियों में नवीं जाति । इसके सात स्वर होते हैं । पपु० २४.१४-२५, हपु० १९.१७७ १८८ कर्मारातिनिशुम्भन-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४० कवंट-पर्वतों से घिरा हुआ ग्राम । ऐसे ग्रामों की रचना तीर्थकर आदिनाथ के समय में शिल्पियों द्वारा की गयी थी। हपु० ९.३८, पापु० २.१५९ ७६ : जैन पुराणकोश कर्मकुर-दक्षिण का एक देश। इसे भरतेश ने अपने दण्डरत्न से जीता था। मपु० २९.८० कर्मक्षपण (कर्मक्षयविधि)-एक व्रत । इसकी साधना के लिए नामकर्म को (तेरानवें प्रकृतियों के साथ समस्त कर्मों की एक सौ अड़तालीस उत्तरप्रकृतियों को लक्ष्य करके एक सौ अड़तालीस उपवास किये जाते है) । एक उपवास और एक पारणा के क्रम से यह व्रत दो सौ छियानवें दिनों में पूर्ण होता है । मपु० ७.१८, हपु० ३४.१२१ कर्मचक्र-ज्ञानावरण आदि कर्मों का समूह । मपु० ४३.२ कर्मठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१४ कर्मण्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१४ कर्मप्रकृति-कर्मों की प्रकृतियाँ । ये एक सौ अड़तालीस हैं । इन्हीं के वशी भूत जीव जन्म, जरा, मरण, रोग, दुःख और सुख संसार में प्राप्त कर रहे हैं । मपु० ६२.३१२-३१४, ६७.६ कर्मप्रवाव-चौदह पूर्त में आठवाँ पूर्व । इसमें एक करोड़ अस्सी लाख पद है । मपु० २.९७-१००, हपु० २.९८, १०.११० कर्मबन्ध–सुकृत (पुण्य) और विकृत (पाप) के भेद से द्विविध । इनमें सुकृत मधुर तथा विकृत कटु फलदायी होते हैं । सुकृतबन्ध का उत्कृष्टतम फल सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होना और विकृतबन्ध का निकृष्टतम फल सातवें नरक में उत्पन्न होना है। इनमें सुकृतबन्ध का फल शम, दम, यम और योग से प्राप्त होता है तथा विकृतबन्ध का फल शम, दम, यम और योग के अभाव से मिलता है। ये दोनों जीव के अपने कर्मबन्ध के अनुसार होते हैं। इससे जीव दुःखी होता है। यह बन्ध राग और द्वेष से आत्मा के दूषित होने पर होता है और बड़ी कठिनाई से छूटता है । इसके कारण ही यह जीव दुर्गतियों में अतिशय निन्दनीय दुःख पाता है। मपु० ११.२०७-२०८, २१९-२२० कर्मभूमि-वृषभदेव ने कृषि आदि छः कर्मों की व्यवस्था इस भरतक्षेत्र की भूमि में की थी। यह भूमि इसी नाम से विख्यात है । मपु० १६.२४९, हपु० ३.११२ यहाँ उत्पन्न मनुष्य अपनी-अपनी वृत्ति की विशेषता से तीन प्रकार के होते है-उत्तम, मध्यम और जघन्य । इनमें शलाकापुरुष, कामदेव, विद्याधर और देवाचित सन्त ये उत्तम मनुष्य तथा छठे काल के मनुष्य जघन्य और इन दोनों के बीच के मनुष्य मध्यम हैं। मपु० ७६.५००-५०२ अढ़ाई द्वीप संबंधी कर्मभूमियाँ पन्द्रह होती है। देवकुरु और उत्तरकुरु सहित विदेह, भरत तथा ऐरावत क्षेत्रों में इन कर्मभूमियों की संख्या १५ है-५ विदेह क्षेत्र में, ५ भरत क्षेत्र में और ५ ऐरावत क्षेत्र में । पपु० ८९.१०६, १०५.१६२ कर्ममल-कर्मरूपी मल । यह निर्वाण की प्राप्ति में बाधक होता है । मपु० कर्षप-यक्षस्थान नगर का निवासी और सुरप का सहोदर । इन दोनों भाइयों ने मूल्य देकर किसी शिकारी द्वारा पकड़े गये पक्षी को मुक्त कराया था। परिणाम स्वरूप पक्षी ने अपनी सेनापति की पर्याय में, जब ये दोनों मुनि अवस्था में थे, इन दोनों की रक्षा की थी। पपु० ३९.१३७-१४० कलभ-अंग देश का एक राजा । यह अतिवीर्य का सहायक था। पपु० ३७.१४ कलम-एक धान्य । मपु० ३.१८६ कलश-जिनाभिषेक हेतु क्षीरसागर से जल लाने के लिए देवों द्वारा व्यहृत जलपात्र । ये स्वर्णमय जल-पात्र आठ योजन गहरे और मुख पर एक योजन चौड़े होते हैं । मपु० १३.१०६-११६ कल शोद्वार मंत्र-जिनाभिषेक के लिए कलश उठाते-हाथ में लेते समय व्यवहृत मंत्र । ऐशानेन्द्र ऐसे मंत्रों का ज्ञाता होता है। मपु० १३. १०७ कलह-भाषा-सत्यप्रवादपूर्व में कथित बारह प्रकार की भाषाओं में एक भाषा-कलहकारी वचन बोलना । हपु० १०.९१-९२ कलागोष्ठी कलाओं द्वारा मनोरंजन का आयोजन । इन गोष्ठियों में संगीत, नृत्य और चित्रकलाओं समेत चौसठ प्रकार की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता था । मपु० २९.९४ कलातीत-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९४ कलाषर-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९४ कलावती-भरत की भाभी। पपु० ८३.९५ कलाव्यत्यसनक्रीडा-चतुर्विध क्रीडाओं में चतुर्थ क्रीडा-जुआ आदि खेलना। केकया इस क्रीडा में भी अत्यन्त निपुण थी। पपु० २४.६७-६९ कलिंग-वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित दक्षिण का एक देश । (उड़ीसा-भुवनेश्वर का समीपवर्ती प्रदेश) । मपु० १६.१४१-१५६, २९. ३८, हपु० ११.७०-७१ तीर्थंकर वृषभदेव, नेमिनाथ तथा महावीर की विहारभूमि । मपु० २५.२८७-२८८, हपु० ३.४, ५९.१११, पापु० १.१३२ दिग्विजय के समय भरतेश के सेनापति ने यहाँ के शासकों को परास्त किया था। मपु० २९.९३ लवणांकुश ने भी यहाँ के राजा को परास्त किया था। पपु० १०१.८४-८६ कर्मशत्रघ्न-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०६ कर्मस्थिति-अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के बीस प्राभूतों में कर्मप्रकृति नाम के चौथे प्राभूत के चौबीस योगद्वारों में तेईसवाँ योगद्वार। हपु. १०.७७-८६ कर्महा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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