SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करहाट-कर्मकाष्ठाशुशुक्षणि जैन पुराणकोश' : ७५ करहाट-वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित एक देश । मपु०१६. १४१-१४८, १५४ करालब्रह्मदत्त-एक अवधिज्ञानी मुनि । हपु० २३.१५० करिध्वजा-समवसरण की एक ध्वजा। इसमें ध्वजा धारण कर सूंड ऊपर उठाये हुए हाथियों की आकृतियाँ अंकित की जाती है। मपु० २२.२३४ करी-उत्तम श्रेणी का हाथी। समाज के उच्चतम वर्ग इस पर सवारी करते हैं। मपु० २९.१४४, १५३ करीरी-आर्यखण्ड के सह्य पर्वत के पास को एक नदी। इसके तट पर करोर की झाड़ियाँ थीं। मपु० ३०.५७ करुणादान-दीन तथा अन्धे, लले-लंगड़े मनुष्यों के लिए करुणाबुद्धि से दिया गया दान । पपु० १४.६६ करेणु-हस्तिनो का दूसरा नाम । इसका उपयोग उच्चवर्ग की स्त्रियों __ की सवारी के लिए होता था । मपु० ८.११९ करेणुका--हाथ को एक उत्तम रेखा । मपु० १२.२२० कर्कोटक-(१) धरण का पुत्र । हपु० ४८.५० (२) कुम्भकण्टक द्वीप का एक पर्वत । हपु० २१.१२३ (३) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३६ कर्ण-(१) इस नाम का एक पर्वत, मृगारिदमन ने इसी पर्वत पर कर्णकुण्डल नाम का नगर बसाया था । पपु० ६.५२९ (२) कान । मपु० १२.४९ (३) राजा पाण्डु और कुन्ती का अविवाहित अवस्था में उत्पन्न पुत्र । कुन्ती के कुटुम्बियों ने परिचय-पत्र, कुण्डल और रत्न-कवच सहित इसे कालिन्दी में बहा दिया था। चम्पापुर के राजा आदित्य ने इसे प्राप्त कर पालनार्थ अपनी प्रिया राधा को सौंपा था। राधा ने इसे कर्ण-स्पर्श करते हुए देख 'कणं' नाम दिया था। मपु० ७०. १०९-११४, हपु० ४५.३७ कुन्ती के पिता अन्धकवृष्णि ने इसकी जन्मवार्ता कान-कान तक पहुँची हुई जान इसे कर्ण कहा था । कुरुक्षेत्र में इसने जरासन्ध का साथ दिया था। इसकी मृत्यु कृष्ण-जरासन्ध युद्ध में अर्जुन द्वारा हुई थी। मपु० ७१.७६-७७, पापु० ७.२६१ २९६, २०.२६३ कर्णकुण्डल-(१) एक नगर । रावण ने यहाँ हनुमान का राज्याभिषेक किया था। उस समय यह नगर स्वर्गोपम समृद्धि से युक्त था । पपु० १९.१०१-१०३ (२) वह नदी जहाँ राम और सीता ने आकाशगामी दो मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। राम को अपना परिचय देने के लिए हनुमान् द्वारा सीता ने लंका से यह संस्मरण कहलाया था। पपु० ५३.१६१-१६३ (३) राजा मृगारिदमन द्वारा बसाया गया नगर । इसकी स्थापना कण पर्वत के पास की गयी थी । पपु०६.५२५-५२९ कर्णकोशल-एक देश । यहाँ तीर्थकर महावीर ने विहार किया था। पापु० १.१३३ कर्णरवा-दण्डकारण्य की एक नदी । पपु० ४०.४० कर्ण सुवर्ण-कर्ण का दीक्षा स्थान । कर्ण ने कर्णकुण्डल उतार कर दमवर __ मुनि से यहीं दीक्षा ली थी । हपु० ५२.८९-९० कर्णाट-वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित दक्षिण का एक देश । यहाँ के राजा हल्दी, ताम्बल और अंजन के प्रेमी हुए हैं। भरतेश के सेनापति ने यहाँ के तत्कालीन राजा को हराकर अपनी आधीनता स्वीकार करायी थी। मपु० १६.१४१-१४८, १५४, २९.९१ पापु० १.१३२-१३४, अपरनाम कर्णाटक कर्णेजपत्व-चुगली करना। मपु० १२.४८ कर्तक-नाई। शूद्र वर्ण के कारू और अकारू भेदों में कारू शूद्रों के दो भेद किये गये हैं-स्पृश्य और अस्पृश्य । इनमें इनकी गणना स्पृश्य ___ कारू-जनों में की गयी है । मपु० १६.१८६ कर्ता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४९ कन्वयक्रिया-सम्यग्दृष्टियों द्वारा अनुष्ठेय' गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कन्वय क्रियाओं में तीसरी क्रिया। यह क्रिया सात प्रकार की है१. सज्जाति २. सद्गृहित्व ३. पारिव्राज्य ४. सुरेन्द्रता ५. साम्राज्य ६. परमार्हन्त्य ७. परमनिर्वाण । पुण्यात्मा ही इन क्रियाओं को प्राप्त करते हैं । मपु० ३८.५०-५३, ६६-६८ कर्बुक-भरतक्षेत्र के पश्चिम का एक देश । भरतेश के भाई ने इसे छोड़___ कर दीक्षा ली थी। हपु० ११.७१ कर्म-(१) स्वतन्त्रता के बाधक और परतन्त्रता के जनक पुद्गलस्कन्ध । ये आठ प्रकार के होते हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें ज्ञानावरण जीवों के ज्ञान गुण का आच्छादन करता है, दर्शनावरण दर्शन नहीं होने देता, वेदनीय सुख-दुःख देता है, मोहनीय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और धार्मिक कार्यों में विकल करता है, आयुकर्म अभीष्ट स्थान पर नहीं जाने देता, नामकर्म अनेक योनियों में जन्म देता है, गोत्रकर्म उच्च-नीच कुलों में उत्पन्न करता है और अन्तराय दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य की उपलब्धि में विघ्न करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय घातिकर्म और शेष अघातिकर्म कहलाते है। वीवच० १६.१४७-१५५ लोक की अनेक रूपता में मूलरूप से ये ही हेतु है । विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये इन्हीं के पर्यायवाचक नाम है । मधुर एवं कटुफल प्रदाता होने से इन्हें द्विविध (पाप-पुण्य) रूप भी कहा गया है तथा यह भी बताया गया है कि अपने कर्मों के अनुसार जीव को उसके शुभाशुभ फल भोगने पड़ते हैं । ये तब तक जीव के साथ रहते हैं जब तक उसके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का सद्भाव रहता है । इन कर्मों की निर्जरा का साधन तप है। ध्यानाग्नि से इनके भस्मीभूत होने पर परमपद को प्राप्ति होती है। मपु० १.८९, ४.३६-३७, ९.१४७, ११.२१९, ५४.१५१-१५२, पपु० ६.१४७, १२३.४१ (२) अग्रायणीय पूर्व के चतुर्थ प्राभृत का योगद्वार । हपु० १०.८२ कर्मकाष्ठाशुशुक्षणि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy