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________________ ७२ : जैन पुराणकोश दोनों रानियाँ भी विमलमती गणिनी से दीक्षित हो गयी थीं। रत्नपुर के राजा रत्नसेन ने इसे आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । चित्रचूल द्वारा किये गये उपसर्गों को जीतकर इसने घातिया कर्मों को नष्ट किया और यह केवली हुआ। इसका अपरनाम कनकशान्त था । मपु० ६३.४५-५६, ११६- १३०, पापु० ५.११, १४-१५, ३७-४४ कनकवी (१) मृणालवती नगरी के सुकेतु सेठ की पत्नी भवदेव की जननी । मपु० ४६.१०४ (२) शिवमन्दिर नगर के नृप दमितारि की पुत्री, अनन्तवीर्य की भार्या मपु० ० ६२.४३३-४३४, ४६५, ४७२-४७३ (३) चम्पा नगरी के निवासी कुबेरदत्त और उसकी भार्या कनकमाला की पुत्री इसका विाह जम्बूस्वामी से हुआ था। मपु० ७६. ४६-५० (४) कनकाभ नगर के राजा कनक की रानी । माल्यवान् की पत्नी, कनकावली की यह जननी थी। पपु० ६.५६७ कनकाद्रि - सुमेरु पर्वत । मपु० ३.६५ कनकाभ - (१) कांचन विमान का निवासी देव । यह वज्रजंघ के महामंत्री का जीव था । मपु० ८.२१३ (२) एक नगर । यहाँ का राजा कनक था । पपु० ६.५६७ का (३) सुभूम चक्रवर्ती के पूर्वभव का जीव । यह धान्यपुर नगर राजा और विचित्रगुप्त का शिष्य था । मरकर यह जयन्त विमान में देव हुआ। वहाँ से युत होकर यह चक्रवर्ती सुभूम हुआ था। पपु० २०.१७० (४) द्वारावती नगरी का राजा । इसने विधिपूर्वक मुनिराज नेमि को पड़गाहकर आहार दिया था तथा पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे । देवों ने इसके प्रांगण में साढ़े बारह कोटि रत्न बरसाये थे । पापु० २२. ४६-५० (५) घृतवर समुद्र का रक्षक देव । हपु० ५.६४२ कनकाभा - (१) राजा सौदास की भार्या, सिंहरथ की जननी । पपु० २२.१४५ (२) मांजलि नगर के राजा दमनकी रानी, जितपद्मा की जननी । पपु० ३८.७२-७३ (३) रावण की रानी । पपु० ७७.९-१३ (४) विजयार्ध पर्वत पर स्थित नन्द्यावर्त नगर के राजा नन्दीश्वर की रानी, नयनानन्द की जननी । पपु० १०६.७१-७२ कनकावर्ता दल के राजा सिंह और उसकी रानी कनकमेखला की - पुत्री । हपु० ४६.१५ कनकावली - (१) कनकाभ नगर के राजा कनक और उसकी रानी कनकी की पुत्री । इसका विवाह माल्यवान् से हुआ था । पपु० ६.५६७ (२) किस नामक विद्याधर की भार्या। यह कांचनपुर नगर की उत्तरदिशा में इन्द्र द्वारा नियुक्त लोकपाल कुवेर की जननी थी। पपु० ७.११२-११३ (३) एक व्रत । इसमें चार सौ चौंतीस उपवास और अठासी पारि Jain Education International कनकधी- कपित्थ णाएं की जाती हैं । कुल समय एक वर्ष पाँच मास और बारह दिन लगता है। इसमें क्रमश: एक उपवास, एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, पश्चात् तीन-तीन उपवासों के बाद एक पारणा ऐसा नो बार करने के पश्चात् एक से सोलह संख्या तक के उपवास और पारणाएं, इसके बाद चौंतीस बार तीन-तीन उपवासों के बाद पारणा, पश्चात् सोलह से लेकर एक तक जितनी संख्या हो उतने उपवास और उनके बाद पारणाएं, तदुपरान्त नौ बार तीन-तीन लगातार उपवाम और हर तीन उपवास के बाद एक पारणा, इसके बाद दो उपवास एक पारणा और एक उपवास इस प्रकार चार सौ चौंतीस उपवास किये जाते हैं । लौकान्तिक देवपद, प्राणत आदि स्वर्ग की प्राप्ति इस व्रत का फल है। मपु० ७.३९, ७१.३९५, हपु० ३४.७४-७७ कनकोज्ज्वल - (१) विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश में स्थित कनकप्रभ नगर का विद्याधर राजा कनकपुंख और उसकी रानी कनकमाला का का पुत्र । यह एक समय अपनी भार्या कनकवती के साथ वन्दनार्थं मेरु पर गया था । वहाँ प्रियमित्र नामक अवधि- ज्ञानी मुनि से धर्म का स्वरूप सुनकर और भोगों से विरक्त होकर इसने जिन दीक्षा धारण कर ली थी तथा संयमपूर्वक मरण कर सातवें स्वर्ग में देव तथा वहाँ से च्युत होकर साकेत नगरी में वज्रसेन का हरिषेण नामक पुत्र हुआ । मपु० ७४.२२१-२३२, वीवच० ४.७२-१२३ (२) भगवान् महावीर के नौवें पूर्वभव का जीव । मपु० ७४. २२०-२२९, ७६.५४१ कनकोदरी - विजयार्ध पर्वत पर स्थित नगर के राजा सुकण्ठ की रानी और सिंहवाहन की जननी। इसकी सौत ने इसकी आराध्यदेवी का तिरस्कार किया जिससे दुखी होकर इसने संयमयो आर्थिका से उपदेश सुना तथा जिन प्रतिमा की पूर्ववत् पुनः प्रतिष्ठा कराकर आराधना करती हुई यह मरकर स्वर्गं गयी और वहाँ से च्युत होकर महेन्द्र नगर के राजा महेन्द्र और रानी मनोवेगा को अंजना नाम की पुत्री हुई । पपु० १७.१५४-१९६ कनर कांचनसन्निभ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१९९ कनीयस् -- आर्यखण्ड के मध्य में स्थित देश । तीर्थंकर महावीर ने विहार कर यहाँ के लोगों को धर्मोपदेश दिया था । हपु० ३.४ कन्दर्प – (१) निरन्तर काम से आकुलित इस नाम के देव । हपु० ३.१३६ (२) अनर्थदण्डवत का एक अतिचार (राम की उत्कृष्टता से हास्यमिश्रित भण्ड वचन बोलना ) । हपु० ५८.१७९ कपाट - केवलि समुद्घात का द्वितीय चरण । हपु० ५६.७४ कपिकेतु-वानर द्वीप में स्थित किष्किन्धपुर नगर के राजा अमरप्रभ का पुत्र और श्रीप्रभा का पति । पिता से राज्य प्राप्त करने के पश्चात् अपने पुत्र प्रतिबल को राज्य देकर यह दीक्षित हो गया था । पपु० ६.१९८-२०० कपित्थ - ( १ ) एक वन । यहाँ के दिशांगिरि पर्वत पर किराताधीश हरिविक्रम ने वनगिरि नगर बसाया था । मपु० ७५.४७९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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