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________________ आलोकि नो-आसुरी जैन पुराणकोश : ५१ आलोकिनी-दूसरों के मनोगतभावों को जानने में सहायक विद्या। आशा-(१) रुचकगिरि के उत्तरदिशावर्ती आठ कूटों में पांचवें रजतकूट यह विद्या मनोयोग विद्याधर की रानो मनोवेगा को सिद्ध थी। मपु० की निवासिनी देवी । पु०५.७१६ ७५.४२-४३ (२) दिशा का पर्यायवाची शब्द । हपु० ३.२७ आलोचना-प्रायश्चित्त के नौ भेदों में प्रथम भेद । इसमें दस प्रकार के दोषों ___ आशालिका-मायामय प्राकार की निर्मात्री एक विद्या। रावण ने को छोड़कर प्रमाद से किये हुए दोषों का सम्पूर्ण रूप से गुरु के समक्ष उपरम्भा से यह विद्या प्राप्त करके नलकूबर को जीता था। इसी निवेदन किया जाता है । मपु० २०.१८९-२०३ हपु० ६४.२८, ३२ विद्या के द्वारा रावण ने लंका के चारों ओर मायामयी कोट का आवर्त-(१) लंका में स्थित राक्षसों की निवासभूमि-भानुरथ के पुत्रों निर्माण कराया था जिसका हनुमान ने भंग किया था। पपु० १२. १३७-१४५, ५२.१५-२२ द्वारा बसाया गया नगर । पपु० ५.३७३-३७४, ६.६६-६८ २) भरतक्षेत्र में विध्याचल पर स्थित भरतेश के भाई द्वारा छोडा आशीविष-पश्चिम विदेह क्षेत्र में स्थित चार वक्षारगिरियों में एक गया एक देश । हपु० ११.७३-७४ वक्षारगिरि । यह सीतोदा नदी और निषध पर्वत का स्पर्श करता है। (३) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का विद्याधर के अधीन एक मपु० ६३.२०३, हपु० ५.२३०-२३१ नगर । हपु० २२.९५ आश्चर्यपंचक-तीर्थकर आदि महान् पुण्याधिकारी मुनियों को आहार (४) चक्रवर्ती भरत के समय का एक जनपद । यहाँ के म्लेच्छ देने के समय होनेवाले पाँच आश्चर्य-रत्नवृष्टि, देव-दुन्दुभि, पुष्पराजा ने भरत चक्री के आक्रमण करने पर चिलात के म्लेच्छ राजा वृष्टि, मन्द-सुगन्धित वायु-प्रवाह और अहोदान की ध्वनि । मपु० से सन्धि कर ली थी। मपु० ३२. ४६-४८, ७६ ४८.४१ (५) पश्चिम विदेह क्षेत्र में प्रवाहित सीता नदी और नील कुला आश्रम-सागार और अनगार के भेद से द्विविध तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, चल के मध्य प्रदक्षिणा रूप से स्थित आठ देशों में इस नाम का एक वानप्रस्थ और भिक्षुक के भेद से चतुर्विध । ये चारों उत्तरोत्तर देश । यह छः खण्डों में विभाजित है। मपु० ६३.२०८, हपु. विशुद्धि को प्राप्त होते हैं । मपु० ३९.१५२, पपु० ५.१९६ ५.२४५-२४६ आषाढ़-विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में चौदहवाँ आवर्तनी-एक विद्या । अर्ककोति के पुत्र अमिततेज ने यह विद्या सिद्ध __ नगर । हपु० २२.९५ की थी। मपु० ६२.३९४ आष्टाह्निक-इस लोक और परलोक के अभ्युदय को देनेवाली अर्हत् आवलि-(१) व्यवहार काल का एक भेद । इसमें असंख्यात समय होते पूजा के चार भेदों में एक भेद । ये चार भेद हैं-सदार्चन, चतुर्मुख, हैं । मपु० ३.१२, हपु० ७.१९ कल्पद्रुम और आष्टाह्निक । इसमें नन्दीश्वर द्वीप सम्बन्धी बावन (२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी पद्मक नगर के निवासी जिनालयों की पूजा की जाती है तथा यह पूजा फाल्गुन, कार्तिक और गणितज्ञ राम का एक धनी शिष्य । चन्द्र इसका सहपाठी था । गुरु आषाढ़ के अन्तिम आठ दिनों में होती है । मपु० ३८.२६, ५४.५०, ने दोनों में फूट डाल दी। इसका परिणाम यह हुआ कि चन्द्र ने इसे ७०.७-८,२२ मार दिया । पपु० ५.११४-११५ ।। आसन-(१) राजा के छः गुणों में तीसरा गुण-मुझे कोई 'दूसरा और मावली-(१) भानुरक्ष के पुत्रों द्वारा बसाये गये दस नगरों में एक मैं किसी दूसरे को नष्ट करने में समर्थ नहीं हूँ' ऐसी स्थिति में नगर-राक्षसों की निवासभूमि । पपु० ५.३७३-३७४ शान्तभाव से चुप बैठ जाना । मपु० ६८.६६-६९ (२) प्रवर नामक राजा की रानी, तनूदरी की जननी । पपु० (२) भोग के दस साधनों में एक साधन । । मपु० ३७.१४३ ९.२४ आसन्नभव्य-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का धारक, आवश्यक-साधु के षडावश्यक नाम से प्रसिद्ध छः मूलगुण-सामायिक, चौदहवें गुणस्थान का मोक्षगामी निकटभव्य जीव । मपु० ७४.४५२स्तुति, त्रिकाल-वन्दन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग । मपु. ४५३, हपु० ३.१०२, वीवच० १६.६४ १८. ७०-७२, ३६.१३३-१३५, वीवच० ६.९३ आसव-मादक रस । मद्यांग जाति के कल्पवृक्षों द्वारा भी यह रस आवश्यकापरिहाणि-सोलहकारण-भावनाओं में एक भावना । इससे दिया जाता था । मपु० ९.३७ सामायिक आदि छः आवश्यक क्रियाओं में नियम से प्रवृत्ति होती है। आसावन-ज्ञानावरण और दर्शनावरण-आस्रव का हेतु (दूसरे के द्वारा मपु० ६३.३२८, हपु० ३४.१४२ प्रकाश में आने योग्य ज्ञान को काय और वचन से रोक देना)। हपु० आवाप-गान्धर्व के तालगत बाईस भेदों में एक भेद । हपु० १९.१५० ५८.९२ आवृष्ट-भरतक्षेत्र के मध्य में स्थित भरतेश के भाइयों द्वारा छोड़े गये आसिंक-भरतेश के भाइयों द्वारा छोड़े गये देशों में दक्षिण का एक देशों में एक देश । हपु० ११.६४-६५ देश । हपु० ११.७० । आवेशिनी-अर्ककोति के पुत्र अमिततेज को सिद्ध एक विद्या । मपु० आसुरी-चमरचंचपुर नगर के विद्याधर इन्द्राशनि की रानी और ६२.३९३ अशनिघोष की जननी । मपु० ६२.२२९, २८४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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