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________________ ५० जैन पुरानकोश (२) परिग्रह-बहुलता नरक का कारण होती है मपु० १०.२१-२३ आरम्भत्याग - ग्यारह प्रतिमाओं में आठवीं प्रतिमा। इसमें सभी निन्द्य और कर्मों का त्याग किया जाता है। ऐसा त्यागी समताभाव अशुभ से मरकर उत्तम गति को प्राप्त होता है । पपु० ४.४७, ataao १८.६५ आराधना - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा सम्यक्तप इन चारों को यथायोग्य रीति से धारण करना। यह चार प्रकार की होती है - दर्शनाराधना, जानाराधना, चारित्राराधना और तप आराधना । भव सागर से पार होने के लिए ये नौका स्वरूप हैं । अनेक महाविद्याएँ भी आराधना से प्राप्त होती हैं। मपु० ५.२३१, १९.१४१६, पापु० १९.२६३, २६७ आरुल - एक देश । लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित किया था । पपु० १०१.७९-८६ आरोहो-स्थायी, संचारी, आरोही, और अवरोही इन चार प्रकार के स्वरों में एक प्रकार का स्वर । पपु० २४.१० आर्जव - धर्मध्यान की दस भावनाओं में तीसरी भावना । इसमें मायाचार को जीता जाता है । मपु० ३६.१५७ - १५८, पपु० १४.३९, पापु० २३.६५, वीवच० ६.७ आर्जवा - अकम्पन सेनापति की माता । मपु० ८.२१ आसंध्यान - तीव्र संक्लेश भावों का उत्पादक, तियंच आयु का बन्धक, एक दुष्यति । इष्टवियोग अनिष्टयोग वेदमा जनित और निदानरूप भेद से यह चार प्रकार का होता है । मपु० ५.१२०-१२१, २१.३१, पु० ५६.४, वीवच ६.४७-४८ यह ध्यान पहले से छठे गुणस्थान तक होता है। इसमें कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती हैं । परिग्रह में आसक्ति, कुशीलता, कृपणता, ब्याज लेकर आजीविका करना, अतिलोभ, भय, उद्वेग, शोक, शारीरिक क्षीणता, कान्तिहीनता, पश्चात्ताप, आँसू बहाना आदि इसके बाह्य चिह्न हैं । मपु० २१.३७४१, पु० ५६.४-१८ लारोपण एक वैवाहिक क्रिया वर और कन्या का चौकी पर रखे हुए गीले चावलों पर बैठना । मपु० ७१.१५१ आर्य- (१) मनुष्यों की द्विविध (आर्य और म्लेच्छ) जातियों में एक जाति । पपु० १४.४१, हपु० ३.१२८ (२) भोगभूमिज पुरुष का सामान्य नाम ( पुरुष के लिए व्यवहृत शब्द) । हृपु० ७.१०२ (३) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के हरिपुर नगर के निवासी पवनगिरि विद्याधर तथा उसकी भार्या मृगावती का पुत्र, सुमुख का जीव । हपु० १५.२०-२४ (४) विद्याओं के सोलह निकायों में एक निकाय । हपु० २२.५७ ५८ (५) दूसरे मनु सन्मति तथा आठवें मनु चक्षुष्मान् ने अपनी प्रजा को इसी नाम से सम्बोधित किया था । मपु० २.८३, १२२ · आर्यकुष्माण्डदेव विद्याधरों की सोलह निकाय की विद्याओं में एक विद्या | पु० २२.६४ Jain Education International आरम्भस्यागमालोकनगर आर्यक्षेत्र -- तीर्थंकरों को विहारभूमि, भरतक्षेत्र का मध्यखण्ड । मपु० ४८.५१ अखण्ड-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में जीयों के अभयदाता वर्ययुक्त, धनिक आर्यों की निवासभूमि इसी में विदेह देश है। यहाँ अनेक मुनियों ने तपस्या करके विदेह अवस्था (मुक्तावस्था ) प्राप्त की है । इसे 'आर्यक्षेत्र' भी कहते हैं । यह तीर्थकरों की जन्म और विहार की स्थली है । मपु० ४८.५१, पापु० १.७३-७५ आर्यगुप्त - इस नाम के एक दिगम्बर आचार्य । पपु० २६.३३-३४ आर्यदेश- आयों की निवासभूमि पु० २.१६९ आर्यवर्मा सिंहपुर नगर का नृप । इसने वीरनन्दो मुनि से धर्म अवग कर निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया और अपने पुत्र धृतिषेण को राज्य सौंपने के पश्चात् जठराग्नि को तीव्रदाह सहने में असमर्थ होने से इसे तापस-वेष भी धारण करना पड़ा था । जीवन्धरकुमार को इसी ने शिक्षा दी थी । अन्त में यह संयमी हो गया और देह त्याग के पश्चात् मुक्त हो गया । मपु० ७५.२७७-२८७ आर्यषट्कर्म --- इज्या वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप । मपु० ३९.२४ 1 आर्यन सुभद्रा (अर्जुन की पत्नी) का पुत्र पु० ५४.७१ आर्या- (१) भोगभूमिज स्त्रियों के लिए प्रयुक्त एक विशेषण पु० ७.१०२ (२) साध्वी । अपरनाम आर्थिका । हपु० २.७०, १२.७८ आर्थिक विसंघ-मुनि, आदिका धावक, धाविका में इस नाम से 3 1 प्रसिद्ध कर्म शत्रु का विनाश करने में तत्पर साध्वी । अपरनाम आर्या । मपु० ५६.५४, हपु० २.७० आर्षभी -- संगीत में षड्ज स्वर की एक जाति । पपु० २४.१२-१५, हपु० ११.१७४ आष्टि - एक शस्त्र । राम-रावण युद्ध में इसका प्रयोग हुआ था । पपु० ६२.४५ आषयज्ञ - तीर्थंकर गणधर तथा अन्य केवलियों के शारीरिक दाहसंस्कार के लिए अग्निकुमार इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न त्रिविध अग्नियों में मंत्रों के उच्चारण पूर्वक भक्तिसहित पुष्प, गन्ध, अक्षत तथा फल आदि से आहुति देना आर्षयज्ञ है । मपु० ६७.२०४-२०६ आर्हन्त्यक्रिया गर्भान्वय दीक्षान्वय और कर्त्रन्वय इन तीनों प्रकार की क्रियाओं में अन्तर्निहित क्रिया गर्भान्यय की तिरेपन क्रियाओं में यह पचासवीं क्रिया है । यह केवलज्ञान की प्राप्ति पर देवों द्वारा की जानेवाली अर्हन्तों की पूजा के रूप में निष्पन्न होती है । मपु० ३८. ५५-६३, ३०१-३०३ । दीक्षान्वय की अड़तालीस क्रियाओं में यह पैंतालीसवीं क्रिया है । इसका स्वरूप गर्भान्वय की अर्हन्त्य क्रिया जैसा ही है । कर्त्रन्वय की सात क्रियाओं में यह छठीं क्रिया है । इसमें अर्हन्त के गर्भावतार से लेकर पंचकल्याणकों तक की समस्त क्रियाएँ आ जाती हैं । मपु० ३९.२५, २०३ २०४ दे० गर्भान्वय आलोकनगर - दुर्गागिरि का निकटवर्ती एक नगर मुनि मृदुमति की पारणा स्थली । पपु० ८५.१४१-१४३ For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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