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________________ ५२ जैन पुराणो आस्कन्वित - घोड़ों की एक गति -- उछल उछल कर चलना । मपु० ३१.४-५ आस्थानांगण - समवसरण की एक भूमि । यहाँ पर बैठकर मनुष्य और देव मानस्तंभों की पूजा करते हैं । हपु० ५७.१२ आस्तिक्य - सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति करानेवाला एक गुण ( वीतराग देव द्वारा प्रतिपादित जीव आदि तत्त्वों में रुचि होना) । मपु० ९. १२३ आस्थानमण्डल - महाशिल्पी कुबेर द्वारा निर्मित समवसरण की रचना । इसे वर्तुलाकार बनाया जाता है। इसकी रचना तीर्थंकरों को केवल - ज्ञान होने पर की जाती है । बारह योजन विस्तृत यह रचना धूलि - साल वलय से आवृत होती है। धूलिसाल के बाहर चारों दिशाओं में स्वर्णमय खम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित चार तोरणद्वार होते हैं । भीतर प्रत्येक दिशा में मानस्तम्भ होता है । इनके पास प्रत्येक दिशा में चार-चार वापियाँ बनायी जाती हैं। वापियों के आगे जल से भरी परिखा समवसरण भूमि को घेरे रहती है। इसके भीतरी भू-भाग में लतावन रहता है। इस वन के भीतर की ओर निषध पर्वत के आकार का प्रथम कोट होता है। इस कोट की चार दिशाओं में चार गोपुरद्वार मंगलद्रव्यों से सुशोभित रहते हैं। प्रत्येक द्वार पर तीन-तीन खण्डों की दो-दो नाट्यशालाएँ होती हैं। आगे धूपघट रखे जाते हैं । घटों के आगे अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र की बन-बीधियाँ होती हैं । अशोक वनवीथी के मध्य अशोक नाम का चैत्यवृक्ष होता है, जिसके मूल में जिन प्रतिमाएँ चतुर्दिक् विराजती हैं। ऐसे ही प्रत्येक वन वीथी के मध्य उस नाम के चैत्यवृक्ष होते हैं। वनों के अन्त में चारों ओर गोपुर द्वारों से युक्त एक-एक वनवेदी होती है। हर दिशा में दस प्रकार की एक-एक सौ आठ ध्वजाएँ फहरायी जाती हैं। इस प्रकार चारों दिशाओं में कुल चार हजार तीन सौ बीस ध्वजाएँ होती हैं। प्रथम कोट के समान द्वितीय कोट होता है। इस कोट में कल्पवृक्षों के वन होते हैं। तृतीय कोट की रचना भी ऐसी ही होती है। प्रथम कोट पर व्यन्तर, दूसरे पर भवनवासी और तीसरे पर कल्पवासी पहरा देते हैं । इनके आगे सोलह दीवारों पर श्रीमण्डप बनाया जाता है। एक योजन लम्बे चौड़े इसी मण्डप में सुर, असुर, मनुष्य सभी निराबाध बैठते हैं । इसी में सिंहासन और गंधकुटी का निर्माण किया जाता है । मपु० २२.७७३१२, पु० ५७.३२-३६, ५६-६०, ७२-७३ वीवच० १४.६५ १८४, त्रिकटनी से युक्त पीठ पर गंधकुटी का निर्माण होता है । यह छः सौ 'धनुष चौड़ी, उतनी हो लम्बी और चौड़ाई से कुछ अधिक ऊंची बनायी जाती है। गंधकुटी में सिंहासन होता है जिस पर जिनेन्द्र तल से चार अंगुल ऊँचे विराजते हैं । यहाँ अष्ट प्रातिहार्यों की रचना की जाती है । मपु० २३.१-७५ सभामण्डप बाहर कक्षों में विभाजित होता है। पूर्व दिशा से प्रथम प्रकोष्ठ में अतिशय ज्ञान के धारक गणधर आदि मुनीश्वर, दूसरे में इन्द्राणी आदि कल्पवासिनो देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएँ, राजाओं की स्त्रियों तथा भाविकाएं, पौधे में Jain Education International आस्कन्दित-आहार ज्योतिषी देवों की देवियाँ, पाँचवें में व्यन्तर देवों की देवियाँ, छठे में भवनवासी देवों की देवियाँ, सातवें में धरणेन्द्र आदि भवनवासीदेव, आठवें में व्यन्तरदेव, नवें में चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ मनुष्य और बारहवें में सिंह, मृग आदि तिर्यच बैठते हैं। इस रचना के चारों ओर सौसौ योजन तक अन्न-पान सुलभ रहता है। क्रूर जीव क्रूरता छोड़ देते हैं । इसका अपरनाम समवसृतमही है। यह दिव्यभूमि स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है, इसका उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और कम से कम विस्तार एक योजन प्रमाण होता है। मानस्तम्भ इतने ऊँचे निर्मित होते हैं कि बारह योजन दूरी से दिखायी देते हैं। मपु० २३.१९३१९६, २५.३६-३८, हपु० ५७.५-१६१, वीवच० १५.२०-२५ आलव -- मन, वचन और काय की क्रिया । इसे योग कहते हैं। इसके दो भेद हैं- शुभाव (पुष्पा) और अशुभासपा) साम्प रायिक और ईर्यापथ। इन दोनों में सकषाय जीवों के साम्परायिक और कषाय रहित के ईर्यापथ आस्रव होता है । पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय हिंसा आदि पाँच अव्रत और पच्चीस क्रियाएँ साम्परायिक आस्रव के द्वार हैं। जीव एक सौ आठ क्रियाओं से आस्रव करता है। वे क्रियाएँ हैं—संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ । ये तीनों कृत, कारित और अनुमोदन, मन, वचन, काय तथा क्रोध, मान, माया, लोभ कपायों से होती हैं । परस्पर गुणा करने से इनके एक सौ आठ भेद हो जाते हैं। ऐसे परिणाम जोवकृत होने से जीवाधिकरण आस्रव नाम से जाने जाते हैं। दो प्रकार की निवर्तना, चार प्रकार का निक्षेप, दो प्रकार का संयोग और तीन प्रकार का निसर्ग ये अजीवाधिकरण आस्रव के भेद हैं । सरागियों को दुष्कर्मों की अपेक्षा पुण्यास्रव उपादेय होता है और मुमुक्षु को वह हेय है । अयत्न जनित पापास्रव समस्त दुःखों के कारण हैं, निंद्य और सर्वथा हेय हैं । हपु० ५८.५७-९० वीवच० १७५०-५१ आखवानुप्रेक्षा बारह अनुप्रेक्षाओं में सातवीं अनुप्रेक्षा राग आदि भावों के द्वारा पुद्गल पिण्ड कर्मरूप होकर आते और दुःख देते हैं । इसी से जीव अनन्त संसार-सागर में डूबता है। पाँच प्रकार का मिथ्यात्व बारह अविरति पन्द्रह प्रमाद और पच्चीस कषाय इस प्रकार कुल सत्तावन कर्मास्रव के कारण होते हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र से इस आस्रव को रोका जा सकता है । पपु० १४.२३८-२३९, पापु० २५.९९ १०१. वीवच० ११.६४-७३ दे० अनुप्रेक्षा । आहवनीय यह अग्नि जिसमें गणधरों का अन्तिम संस्कार होता है। मपु० ४०.८४ - For Private & Personal Use Only , आहार - काय की स्थिति के लिए साधुओं द्वारा गृहीत निर्दोष और मित आहार । यह साधुओं को गोचरी से प्राप्त होता है । इसमें साधु आसक्तिरहित रहते हैं । यह साधुओं की प्राण-रक्षा का साधन मात्र होता है । इसके सोलह उद्गमज, सोलह उत्पादक, दस एषणा संबंधी और धूम, अंगार, प्रमाण और संयोजना ये चार दाता संबंधी इस www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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