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________________ अर्कीअर्जुन (३) सौधर्म और ईशान स्वर्गो के ३१ पटलों में १७वीं पटल । हपु० ६.४६ दे० सौधर्म (४) रावण का एक योद्धा । पपु० ६०.२-४ (१) भरतक्षेत्र के विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिणी में स्थित रथनूपुर नगर के विद्याधर राजा ज्वलनजटी तथा उनकी रानी वायुवेदा का पुत्र स्वयंप्रभा का सहोदर इसका विवाह प्रजापति की पुत्री ज्योतिर्माला से हुआ था। इन दोनों के अमिततेज नामक पुत्र और सुनारा पुत्री थी। इसने पिता से राज्य प्राप्त किया था । इसकी पुत्री का विवाह इसके फूफा त्रिपुष्ठ के पुत्र विजय से हुआ था। अन्त में इसने पुत्र अमिततेज को राज्य देकर विपुलमति चारण मुनि से दीक्षा धारण कर ली थी तथा कर्मों का नाश कर मुक्ति प्राप्त की थी । मपु० ६२.३०-४४, पापु० ४.४ १३, ८५ ९६, वीवच० ३.७१-७५ (२) भरत के चरमशरीरी पाँच सौ पुत्रों में प्रथम पुत्र भरत के सेनापति जयकुमार के साथ सुलोचना नामक कन्या के निमित्त इसका संघर्ष हुआ था । काशी देश के राजा अकम्पन ने अपनी पुत्री अक्षमाला इसे देकर इस संघर्ष को समाप्त किया था। सूर्यवंश का उद्भव इसी से हुआ था । सितयश इसका पुत्र था। मपु० ४३.१२७, ४४.३४४३४५ ४५.१०-३०, प०५४, २६०-२६१ ० २.१०, ११. १३०, १२.७-९, पापु० ३.१२९-१३७ (३) राजा चन्द्राभ और रानी सुभद्रा का पुत्र । मपु० ७४.१३५ अर्कचूड - भूरिचूड का पुत्र, वह्निजी विद्याधर का पिता और दृढरथ का वंशज । पपु० ५.४७-५६ अकंजटी - विद्याधर रत्नजटी का पिता । इसने रावण से सीता को मुक्त कराने का यत्न किया था । पपु० ४५.५८-६९ दे० रत्नजटी अर्कतेज - विद्याधर अमिततेज का पुत्र । मपु० ६२.४०८, पापु० ४. २३७-२४३ अर्कप्रभ - (१) कापिष्ठ स्वर्ग में उत्पन्न इस नाम का देव । यह मुनि रश्मिवेग का जीव था । हपु० २७.८७ (२) कापिष्ठ स्वर्ग का इस नाम का एक विमान । मपु० ५७. २३७-२३८ अर्कमाली — सिद्धशिला के दर्शनार्थ राम-लक्ष्मण के साथ गया एक विद्याधर । पपु० ४८. १९१ अर्कमूल - विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का नगर । हपु० २२.९९ अर्कोपसेवन - सूर्योपासना । अयोध्या नगरी में काश्यप गोत्र के इक्ष्वाकुवंशी राजा वज्रबाहु और रानी प्रभंकरी का आनन्द नामक पुत्र था। इसने विपुलमति मुनि से धर्मश्रवण किया था। मुनि ने इसे चैत्य और चैत्यालयों को अचेतन होते हुए पुण्यबंध के कारण बताया था और सूर्य विमान तथा उसमें जिनमंदिर भी बनवाया था। इस प्रकार इस राजा की सूर्योपासना को देखकर दूसरे लोग भी सूर्य स्तुति करने लगे और लोक में सूर्योपासना आरम्भ हो गयी। मपु० ७३. ४२-६० अर्चा- नवधा भक्ति में चतुर्थ भक्ति । मपु० २०.८६-८७ Jain Education International जैन पुरणको ३५ अर्धाख्य- समवसरण की उत्तर दिशा में स्थित द्वार के आठ नामों में एक नाम । हपु० ५७.६० अब इस नाम का प्रथम अनुदिश विमान । हपु० ६.६३ दे० अनुदिश अचमालिनी - द्वितीय अनुदिश विमान । हपु० ६.६३ दे० अनुदिश अमिली (१) विजयार्थ पर्वत की दक्षिणवेणी में स्थित किन्नरोद्गीत नगर का राजा । इसकी रानी प्रभावती से ज्वलनवेग और अशनिवेग नाम के दो पुत्र थे । इसने बड़े पुत्र को राज्य तथा प्रज्ञप्ति विद्या और छोटे पुत्र को 'युवराज पद देकर अरिन्दम गुरु से दीक्षा धारण कर ली थी । हपु० १९.८० - ८२ (२) अशनिवेग विद्याधर का आज्ञाकारी देव। इसने अशनिवेग की आज्ञा से राजा वसुदेव को हरकर विजयार्थ पर्वत पर कुंजरावर्त नगर के सर्वकामिक उपवन में छोड़ा था। वायुवेग विद्याधर इसका साथी था । पु० १९.६७-७१ अर्चिष्मान् - जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.२९-४० दे० जरासन्ध अर्जुन --- कुरुवंशी राजा पाण्डु की प्रथम रानी कुन्ती का तृतीय पुत्र । इसके दो बड़े भाई थे, युधिष्ठिर और भीम । पाण्डु की दूसरी रानी माद्री से उत्पन्न नकुल और सहदेव इसके छोटे भाई थे। ये पाँचों भाई पंच पाण्डव नाम से प्रसिद्ध हुए । युद्ध में धन और जय की प्राप्ति तथा शत्रुओं के लिए अग्नि स्वरूप होने से इसे धनंजय, चाँदी के समान शुभ्रवर्णं का होने से अर्जुन और गर्भावस्था में कुन्ती ने स्वप्न में इन्द्र को देखा था इसलिए शक्रसूनु कहा गया है। धनुष और शब्द-भेदी विद्याएँ इसने द्रोणाचार्य से सीखी थीं। इसने गुरु की आज्ञा से द्रोण जाति के काक पक्षी की दाहिनी आँख को वेधा था। बा भरे मुखवाले कुत्ते को देखकर ऐसा कार्य करनेवाले वे बाग विद्या मैं निपुण भील का इसने परिचय प्राप्त किया था तथा उससे यह ज्ञात किया था यह विद्या उसने द्रोणाचार्य को गुरु बनाकर उनके परोक्ष में सीखी है। इस प्रकार यह समाचार तथा भील द्वारा निरपराधी प्राणी मारे जाने की सूचना गुरु द्रोणाचार्य को देकर उनसे जीववध रोकने हेतु इसी ने निवेदन किया था। गुरु ने उस भील से भेंट कर उससे गुरु-दक्षिणा में उसका दायें हाथ का अंगूठा माँगा था तथा अंगुष्ठ लेकर जीववध रोका था। पाण्डु और माद्री की मृत्यु के पश्चात् राज्य प्राप्ति के विषय को लेकर कौरवों के साथ इसका और इसके भाइयों का विरोध हो गया था। विरोध स्वरूप कौरवों ने पाण्डवों के निवास में आग लगवा दी थी किन्तु अपने भाइयों और माँ सहित यह सुरंग से निकल आया था । इसने माकन्दी नगरी के राजा द्रुपद और उनकी रानी भोगवती की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में गाण्डीव धनुष से चन्द्रक यन्त्र का वेधन किया था। द्रौपदी ने इसके गले में माला डाली थी किन्तु वायुवेग से माला टूटकर बिखर गयी और उसके फूल अन्य पाण्डवों पर भी गिर गये थे इससे द्रौपदी को पांचों पाण्डवों की पत्नी कहा गया । पाण्डव पुराण में घूमती हुई किसी राधा नामक जीव की नासिका के मोती को बेधने की चर्चा की गयी है। इसकी पत्नो द्रौपदी में युधिष्ठिर और भीम की बहु जैसी और नकुल तथा सहदेव की माता - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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