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________________ जैन पुराणकोश : ४८३ 'हिरण्यनाभि-हुण्डसंस्थान स्वयंवर में इसके भानेज बलदेव और कृष्ण दोनों आये थे। इसने अपने बड़े भाई रेवत की रेवती, वन्धुमती, सीता और राजीवनेत्रा चारों पुत्रियाँ पहले ही बलदेव को दे दी थीं। यह महारथी राजा था। जरासन्ध ने इसे सेनापति बना लिया था। इसने कृष्ण के सेनापति अनावृष्टि का सामना किया था । उसे सात सौ नब्बे वाणों के द्वारा सत्ताईस बार घायल किया था । अन्त में अनावृष्टि ने इसकी भुजाओं पर तलवार के घातक प्रहार कर इसकी दोनों भुजाएँ काट डाली थीं तथा यह छाती फट जाने से प्राण रहित होकर पृथिवी पर गिर गया था। पाण्डवपुराण के अनुसार यह युधिष्ठिर द्वारा मारा गया था। हपु० ३१.८-११, ४४.३७-४३, ५०.७९, ५१.१३, २३, ३५-४१, पापु० १९.१६२-१६३ ।। हिरण्यनाभि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११७ हिरण्यमती-एक आर्यिका । दान्तमती आयिका ने इन्हीं के साथ विहार किया था। रानी रामदत्ता की यह दीक्षा गुरु थी। मपु० ५९.१९९ २०० दे० रामदत्ता हिरण्यरोम-होमन्त पर्वत का एक तापस । सुकुमारिका इसकी पुत्री थी । हपु० २१.२४-२५ हिरण्यलोमा-पद्मिनीखेट नगर के सोमशर्मा ब्राह्मण की पुत्री। इसकी चन्द्रानना पुत्री थी। मपु० ६२.१९२, पापु० ४.१०७-१०८।। हिरण्यवती-(१) राजा अतिबल और रानी श्रीमती की पुत्री तथा असितपर्वतनगर के मातंगवंशी राजा प्रहसित की रानी । सिंहदष्ट्र इसका पुत्र था। इसमें रूप बदलकर अपनी नातिन नीलयशा को वसुदेव से मिलाया था। हपु० २२.११२-१३३ दे० अतिबल (२) पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र की रानी। यह साकेत नगर के राजा दिब्यबल और रानी सुमती की पुत्री थी। इसने दत्तवती आयिका से आयिका-दीक्षा ली थी। मपु० ५९.२०८-२०९, हपु० मान था तब विद्य च्चोर ने इसे और इसकी पत्नी आयिका प्रभावती को एक ही चिता पर रखकर जला दिया था। इस उपसर्ग को विशुद्ध परिणामों से सहकर यह और आर्यिका प्रभावती दोनों स्वर्ग में देव और देवी हुए। इसके पुत्र सुवर्णवर्मा ने इस घटना से दुःखी विद्यु च्चोर के निग्रह का निश्चय किया किन्तु अवधिज्ञान से सुवर्णवर्मा के इस निश्चय को जानकर यह और प्रभावती का जीव वह देवी दोनों संयमी का रूप बनाकर पुत्र सुवर्णवर्मा के पास आये थे। दोनों ने धर्मकथाओं के द्वारा तत्त्वश्रद्धान कराकर उसका क्रोध दूर किया था। पश्चात् दोनों ने अपना दिव्य रूप प्रकट करके उसे अपना सम्पूर्ण वृत्त कहा था और बहुमूल्य आभूषण भेंट में दिये थे। मपु० ४६.१४५-१८९, २२१, २४७-२५५, हपु० १२.१८-२१, पापु० ३.२०१-२३६ (२) भरतक्षेत्र के अरिष्टपुर नगर का राजा। पद्मावती इसकी रानी और रोहिणी पुत्री तथा वसुदेव इसका जामाता था। मपु० ७०.३०७-३०९, पापु० ११.३१ (३) विजयाध पर्वत की अलका नगरी के राजा हरिबल और उसकी दूसरी रानी श्रीमती का पुत्र । पहली रानी से उत्पन्न भीमक इसका भाई था। इसके पिता इसे विद्या और इसके भाई भीमक को राज्य देकर संसार से विरक्त हो गये थे। भीमक ने इसको विद्याएँ हर ली थी और मारने को उद्यत हुआ था। परिणामस्वरूप इसने अपने चाचा महासेन की शरण ली थी। भीमक ने महासेन से युद्ध किया जिसमें यह पकड़ा गया था। इस समय भीमक ने इससे सन्धि करके उसे राज्य दे दिया था किन्तु अवसर पाकर उसने राक्षसी विद्या सिद्ध की तथा विद्या की सहायता से उसने इसे और महासेन को मार डाला था । मपु० ७६.२६२-२८० हिरण्य-स्वर्णप्रामाणातिकम्-परिग्रह परिमाणव्रत का प्रथम अतीचार चाँदी, सोने की निर्धारित सीमा का अतिक्रमण करना । हपु० ५८.१७६ हिरण्याभ-विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के कनकपुर नगर का राजा । सुमना इसकी रानी तया विद्य त्प्रभ पुत्र था । पपु० १५.३७-३८ हिरण्योत्कृष्ट जन्मताक्रिया-र्भान्वयो वेपन क्रियाओं में उन्तालीसवीं क्रिया-तीर्थंकरों के जन्म संबंधो उत्कृष्टता को सूचक अन्य बातों के साथ-साथ स्वर्ण की वर्षा होना। यह क्रिया तीर्थंकरों के होतो है। इसमें तीर्थंकरों के गर्भ में आने के छः मास पूर्व से कुबेर रत्नों की वर्षा करता है । मन्द-मन्द हवा बहती है, दुन्दुभियों को ध्वनियाँ होती है, पुष्पवृष्टि होती है और देवियाँ आकर जिन-माता की से वा करती हैं । मपु० ३८.६०, २१७-२२४ होनाधिकमानोन्मान-अचौर्यव्रत के पाँच अतिचारों में चौथा अतिचार माप तोल से कम वस्तु देना और अधिक लेना । हपु० ५८.१७२ हुंकार--राम के समय का एक मांगलिक वाद्य । यह सेना के प्रस्थान काल में बजाया जाता था । पपु० ५८.२७ हुण्डसंस्थान-नामकर्म के छः संस्थानों में एक संस्थान-अंगों और उपांगों हिरण्यवर्ण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१९९ हिरण्यवर्मा-रतिवर कबूतर का जीव-एक विद्याधर । यह विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी को उशीरवती नगरी के राजा आदित्यगति और उसकी रानी शशिप्रभा का पुत्र था । विजयाध पर्वत को उत्तरश्रेणी के भोगपुर नगर के राजा वायुरथ की पुत्री-रतिवेगा कबूतरी का जीव प्रभावती इसकी रानी थी। गति-युद्ध में प्रभावती ने इसका बरण किया था। धान्यकमाल वन मे पहुँचने पर वहाँ सर्प सरोवर देखकर इसे पूर्वभव के सब सम्बन्ध प्रत्यक्ष दिखाई दिये थे। इसे इससे वैराग्य जागा । सांसारिक भोग क्षण-भंगुर प्रतोत हुए। फलस्वरूप इसने पुत्र सुवर्णवर्मा को राज्य देकर श्रीपुर नगर में श्रपाल गुरु से जनेश्वरी दीक्षा ले लो थी। इसको रानों ने भो गुणवतो आर्यिका के पास तप धारण कर लिया था। यह विहार करते हुए 'पुण्डरी किणी नगरी आया था। इसने घोर तप किया। एक समय जब यह सात दिन का नियम लेकर श्मसान में प्रतिमायोग से विराज- Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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