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________________ ३० : जैन पुराणकोश अमितविक्रम-अमृतभाषिणी अमितविक्रम-पुष्कराध संबंधी पूर्वार्ध भरतक्षेत्र के नन्दनपुर नगर का अमृतगर्भ-रुचिकर, स्वादिष्ट और सुगन्धित किन्तु गरिष्ठ मोदक । राजा। इसकी रानी आनन्दमति थी। इन दोनों की धनश्री और मपु० ३७.१८८ अनन्तश्री नाम की दो पुत्रियाँ थीं । मपु० ६३.१२-१३ अमृतदीधिति-चम्पापुर नगर का राजा । हपु० १५.४८-५३ अमितवेग-(१) अमिततेज का बड़ा भाई । हपु० ३४.३५-३५ दे० अमृतधार-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में सेंताआमततेज लीसवां नगर । हपु० २२.१०० (२) विजयाधं के स्थालक नगर का राजा, मणिमति का पिता । अमृतपानक-भरत का प्रिय रासायनिक पेय पदार्थ । मपु० ३७.१८९ विद्या साधना में रत मणिमति को देखकर एक समय रावण इस पर अमृतपुर-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी का एक नगर-विद्याधरों की आसक्त हो गया था । मणिमति को अपने अधीन करने के लिए रावण ने उसकी विद्या छीन ली थी। बारह वर्ष से साधना में रत इस कन्या निवासभूमि । यहाँ का राजा रावण का सहायक था। पपु० ५५.८४ ८८ ने विद्या की सिद्धि में विघ्न होता देखकर निदान किया था कि वह ___अमृतप्रभ अन्कवृष्णि का पौत्र तथा अभिचन्द्र का पुत्र । यह चन्द्र, इसी की पुत्री होकर इसके वध का कारण बने । निदान वश आयु के शशांक, चन्द्राभ, शशी और सोम का अनुज था। हपु० ४८.५२ अन्त में भरकर वह मन्दोदरी के गर्भ से उत्पन्न हुई जिसे सीता नाम अमृतप्रभावा-दर्भस्थल के राजा सुकोशल की रानी, अपराजिता की से सम्बोधित किया गया । मपु० ६८.१३-२७ जननी । पपु० २२.१७१-१७२ अमितशासन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० । अमृतघल-सूर्यवंश में उत्पन्न अतिबल का पुत्र । हपु० १३.८, १२ २५.१६९ अमृतमेघ-उत्सर्पिणी काल के अतिदुःषमा काल में निरन्तर सात दिन अमितसागर-एक मुनि । इन्होंने विदेह क्षेत्र के अशोकपुर नगर निवासी तक अमृत की वर्षा करनेवाले मेघ । मपु० ७६.४५४-४५७ आनन्द वैश्य के घर आनन्दयशा से आहार प्राप्त किया था। इन्हें अमृतरसायन-(१) सुराष्ट्र देश में गिरिनगर के राजा चित्ररथ का एक आहार देने से आनन्दयशा को पंचाश्चर्य प्राप्त हुए थे। मपु० ७१. रसोइया । इसकी मांस पकाने की चतुराई से प्रसन्न होकर राजा ने ४३२-४३४ इसे बारह गाँव दिये थे, किन्तु राजा चित्ररथ के दीक्षित होते ही अमितसार-समवसरणभूमि के तीसरे कोट के पश्चिम द्वार के आठ नामों राजा के पुत्र मेघरथ ने इसके पास एक ही गाँव रहने दिया था, शेष में दूसरा नाम । हपु० ५७.५६, ५९ उससे छीन लिये थे। राजा के दीक्षित होने तथा अपने ग्राम छीने अतिसेन-पुन्नाटगण के अग्रणी एक मुनि । ये षट्खण्डागम के ज्ञाता जाने में सुधर्म नामक मुनि को कारण समझकर यह मुनि वेष से द्वेष और कर्म-प्रकृति श्रुत के धारक थे । जयसेन इनके गुरु थे। ये प्रसिद्ध करने लगा था । द्वेष वश इसने मुनि को आहार में कड़वी तूमड़ी दी वैयाकरण और सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इनकी आयु सौ वर्ष से थी। कड़वा फल खाने से मुनि का गिरनार पर्वत पर समाधिपूर्वक अधिक थी। ये शास्त्रदानी थे। कीर्तिषेण मुनि इनके अग्रज थे । मरण हुआ। मुनि मरकर अहमिन्द्र हुए और यह मरकर तीसरे नरक हपु० ६६.२९-३३ . में उत्पन्न हुआ। मपु०७१.२६५-२७७ अमितसेना-एक गणिनी । इसने पुष्करवरद्वीप में स्थित वीतशोक नगर (२) सुभौम चक्रवर्ती का रसोइया । अविवेक पूर्वक सुभोम द्वारा के राजा चक्रध्वज की रानी कनकमालिका और उसकी दोनों पुत्रियों दण्डित किये जाने से मरते समय इसने सुभोम को मारने का निदान कनकलता और पद्मलता को उपदेश दिया था जिसके प्रभाव से वे किया था। मरकर यह विभंगावधिज्ञानधारी ज्योतिष देव हुआ तथा तीनों मरकर प्रथम स्वर्ग में देव हुई थीं। मपु० ६२.३६४-३६७ ।। पूर्व वैर वश सुभौम को अपनी ओर आकृष्ट करके छलपूर्वक समुद्र के अमिताङ्क-राजपुर नगर का राजा, सुधर्ममित्र का शिष्य, ग्यारहवे बोच ले गया। वहाँ इसने उसे मार डाला । मपु० ६५.१५२-१६८ चक्रवर्ती जयसेन के पूर्वभव का जीव । पपु० २०.१८८-१८९ अमृतवती-(१) विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी का देश । मेघकट अमूढ़वृष्टि-सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में एक अंग--तत्त्व के समान प्रतिभा इसी देश का एक नगर था। कालसंवर यहाँ का राजा था। मपु० सित मिथ्यानय के मार्गों में “यह ठीक है" | इस प्रकार का मोह न ७२.५४ होना । इसका धारक तीनों प्रकार की मूढ़ताओं का त्यागी होता है । (२) पृथिवीनगर के राजा पृथु की रानी, कनकमाला की जननो। मपु० ६३.३१७, वीवच० ६.६६ पपु०१०१.५-८ अमूर्त-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८७ अमृतवेग-राक्षसवंशी, सुव्यक्त का पुत्र । यह अपने पुत्र भानुमति को पिता से प्राप्त राज्य सौंपकर दीक्षित हो गया था। पपु० ५.३९३अमूर्तात्मा सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२८ ४०० अमृत-(१) शरीर का पोषक दिव्यपान । मपु० २.१२ अमृतसागर-श्रुतकेवली तथा अनेक ऋद्धियों के धारक सागरदत्त के (२) आदित्यवंशी नृप अतिबल का पुत्र । सुभद्र इसका पुत्र था । ___ संयमदाता मुनि । मपु० ७६.१३४, १४७-१४८ शरीर से निःस्पृह होकर यह निर्ग्रन्थ हो गया था। पपु० ५.४-१० अमृतश्राविणी-एक ऋद्धि । इससे भोजन में मिला विष भी अमृतरूप (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२७ हो जाता है । मपु० २.७२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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