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________________ सागरकूट-सागार जैन पुराणकोश : ४३५ (८) तीर्थकर अजितनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५२९ । सागरसेन-(१) सहस्राम्र वन में आये एक मुनिराज। अरिष्टपुर नगर सागरकूट-माल्यवान् पर्वत का एक कूट । हपु० ५.२१९ का राजा वासव इन्हीं से दीक्षित हुआ था। मपु० ७१.४००-४०२, सागरचन्द्र-मेघकूट नगरी के जिनालय में समागत एक मुनि । प्रद्युम्न ने इनसे अपने पूर्वभव पूछे थे । हपु० ४७.६०-६१ (२) राजा वसु की वंश परम्परा में हुए राजाओं में राजा दीपन सागरचित्रक-नन्दनवन का एक कूट । हपु० ५.३२९ का पुत्र और राजा सुमित्र का पिता । हपु० १८.१९ सागरदत्त-(१) चौथे नारायण के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.२१० (३) एक मुनि । पुरुरवा भल इन्हें मृग समझकर मारना चाहता . (२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित एकक्षेत्र नगर का एक था किन्तु उसकी स्त्री ने ऐसा नहीं होने दिया था। पुरुरवा ने इनसे वैश्य । इसकी स्त्री रत्नप्रभा थी। इन दोनों की गुणवती नाम की क्षमा माँगकर धर्मोपदेश सुना और मद्य-मांसादि का भक्षण तथा पुत्री थी, जो सोता का जीव थी । पपु० १०६.१२ जीवघात त्यागकर समाधिपूर्वक देह त्याग की और सौधर्म स्वर्ग में देव (३) विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के निवासी सेठ सागरसेन हुआ । मपु० ६२.८६-८८, ७४. १४-२२, वीवच० २.१८-३८ का बड़ा पुत्र । यह समुद्रदत्त का बड़ा भाई था। इसकी बहिन (४) एक विद्वान् । सिद्धार्थ नगर के राजा क्षेमंकर के देशभूषण सागरदत्ता थी। इसे सागरसेन को भानजी वैश्रवणदत्ता विवाही गयी और कुलभूषण दोनों पुत्रों ने इसी विद्वान् के पास अनेक कलाएं थी। मपु० ४७.१९१-१९९ । सीखी थीं । पपु० ३९.१५८-१६१ (४) राजपुर नगर का एक वैश्य । इसने निमित्तज्ञानी के कहे (५) एक चारण ऋद्धिधारी मुनि । ये दमधर मुनि के माथ मनोअनुसार अपनी पुत्री विमला का विवाह जीवन्धर से किया था। हर वन में तपस्या कर रहे थे। इन्होंने इसी वन में ही आहार लेने मपु० ७५.५८४-५८७ की प्रतिज्ञा की थी। विजय यात्रा के प्रसंग से वज्रजंघ वहाँ आया (५) हस्तिनापुर का निवासी एक वैश्य । इसकी स्त्री धनवती और उसने वन में ही आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। मपु. ८.१६७-१७३ और उग्रसेन पुत्र था। मपु०८.२२३ (६) एक शिविका । तीर्थकर अनन्तनाथ इसी में बैठकर दोक्षा (६) विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी का एक वैश्य । सेठ भूमि-सहेतुक बन गये थे । मपु० ६०.३०-३२ सर्वदयित के पिता की छीटी बहिन देवश्री इसकी पत्नी थी। इससे (७) भरतक्षेत्र के अंग देश की चम्पा नगरी का एक वैश्य । इसके दो पुत्र थे-सागरदत्त और समुद्रदत्त । एक पुत्री भी थी इसकी स्त्री पद्मावती तथा पद्मश्री पुत्री थी । मपु० ७६.८, ४६,५० जिसका नाम समुद्रदत्ता था। मपु० ४७.१९१, १९५-१९६ । (७) धरणिभूषण पर्वत के प्रियंकर उद्यान में आये एक मुनिराज । (८) एक मुनि । ये वचदन्त चक्रवर्ती के पुत्र थे। इनका जन्म आयु के अन्त में संन्यासपूर्वक देह त्यागकर ये स्वर्ग गये। मपु० समुद्र में होने से यह नाम रखा गया था। इन्होंने बादलों को विलीन ७६.२२०-२२१, ३५० होता हुआ देखकर सब कुछ क्षणभंगुर जाना। इस बोध से इन्हें सागरसेना-विदेहक्षत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के सेठ सागरसेन की वैराग्य जागा । फलस्वरूप ये अमृतसागर मुनि के पास संयमी हो गये छोटी बहिन । इसकी दो सन्तानें थीं-एक पुत्र और एक पुत्री। थे । मपु० ७६.१३४, १३९-१४९ पुत्र वैश्रवदत्त और पुत्री वैश्रवदत्ता थी । मपु० ४७.१९१, १९६-१९७ (९) मगध देश के सुप्रतिष्ठ नगर का सेठ । इसकी स्त्री प्रभाकरो सागरावर्त-देवों से रक्षित एक धनुष । चन्द्रगति विद्याधर ने लक्ष्मण थी । इस स्त्री से इसके दो पुत्र हुए-नागदत्त और कुबेरदत्त । को यह धनुष चढ़ाकर अपनी शक्ति बताने के लिए कहा था । लक्ष्मण इसने सागरसेन मुनि से अपनी तोन दिन की आयु शेष जानकर ने भी इस धनुष को चढ़ाकर उसका मानभंग किया था। देवों ने बाईस दिन का संन्यास धारण करके देह त्याग की थी तथा देव पद पुष्पवृष्टि की थी। इसो शक्ति को देखकर चन्द्रवर्द्धन विद्याधर ने पाया था । मपु० ७६.२२७-२३० लक्ष्मण को अपनी अठारह पुत्रियाँ दी थीं। अन्त में यह धनुष सागरवत्ता-सेठ सागरसेन को पुत्री। इसका विवाह सेठ वैश्रवणदत्त के लक्ष्मण ने अपने भाई शत्रुघ्न को दे दिया था। पपु० २८.१६९-१७०, साथ हुआ था । मपु० ४७.१९८-१९९ दे० सागरदत्त-३ २४७-२५०,८९.३५ सागरनिस्वान-एक वानरकुमार । यह बहुरूपिणी विद्या सिद्धि के समय सागरोपम-(१) राम का एक योद्धा । पपु० ५८.२२ रावण को कुपित करने लंका गया था । पपु० ७०.१५, १८ (२) काल का एक प्रमाण । ढ़ाई उद्धार सागर प्रमाण काल का सागरबुद्धि-एक निमित्तज्ञानी। इन्हीं ने रावण को उसकी मृत्यु का एक सागरोपम काल होता है। एक उद्धार सागर दश कोड़ाकोड़ी कारण दशरथ का पुत्र बताया था। पपु० २३.२५ उद्धार पल्यों का कहा गया है । हपु० ७.५१ दे० उद्धारपल्य सागर बुद्धि-बाली का मंत्री। इसने दशानन के आक्रमण करने पर सागार-गृहस्थ । चक्रवर्ती भरतेश ने परीक्षा करके इनके दो भेद किये आक्रमण का प्रतिशोध करने के लिए उद्यत बाली से क्षमा धारण थे-व्रती और अवती। इनमें उन्होंने व्रती गहस्थों को सम्मानित करने का निवेदन किया था। युद्ध का फल क्षय बताकर इसने किया था तथा इन्हें इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप अकारण युद्ध न करने का उसे परामर्श दिया था। पपु० ९.७०-७५ ये छः कर्म करने का उपदेश भी दिया था। मपु० ३८.७-२४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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