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________________ ४३६ : जैन पुराणकोश सागारधर्म-सामन्तवर्द्धन सागारधर्म-गृहस्थ धर्म-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । करते, (२४) वस्त्र धारण नहीं करते, (२५) दाँतों का मैल नहीं इन बारह व्रतों का धारण करना तथा धन-सम्पदा में सन्तोष रखना, छुटाते, (२६) सदैव पृथिवी पर ही शयन करते, (२७) आहार दिन इन्द्रिय विषयों में अनासक्त रहना, कषायों को कृश करना और में एक ही बार, (२८) खड़े-खड़े लेते हैं । इनके ये अट्ठाईस मूलगुण हैं ज्ञानियों की विनय करना सागार-धर्म है । पपु० ४.४६, ६.२८८- जिन्हें ये सतत पालते हैं। मपु० ९.१६२-१६५, ११.६३-७५, पपु० २८९ ८९.३०, १०९.८९, हपु० १.२८, २.११७-१२९ साटोप-(१) रावण के विरोधी यम लोकपाल का एक योद्धा । यह (२) गुण और दोषों में गुणों को ग्रहण करनेवाले सत्पुरुष । पपु० रावण की सेना के साथ युद्ध करने के लिए अपनी सेना सहित युद्धक्षेत्र में आया था। विभीषण ने इसे हंसते-हँसते ही मार गिराया था। (३) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. पपु० ८.४६६, ४६९ (२) एक विद्याधर कुमार । यह विद्या की साधना करनेवाले रावण साघुबत्त-एक मुनि । कौमुदी नगरी के राजा सुमुख की पुत्री मदना ने को कुपित करने लंका गया था । पपु० ७०.१६, २३ । इन्हीं से सम्यग्दर्शन (तत्त्वार्थ श्रद्धान) प्राप्त किया था। पपु० ३९. सातंकर-सोलहवें स्वर्ग का एक विमान । राजा अपराजित इसी विमान १८०-१८३ में अच्युतेन्द्र हुए थे । मपु० ७०.४९-५० साधुदान-व्रती, निर्ग्रन्थ साधुओं को दिया गया दान । ऐसा दान देनेसातासात-अग्रायणीयपूर्व सम्बन्धी कर्मप्रकृति चोथे प्राभृत के चौबीस ___ वाले भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं । पपु० ३.६५-६९ योगदारों में सोलहवाँ योगद्वार । हप० १०.८१. ८४. दे. अग्रा- साधुभद्र-यवनों का एक राजा । यह नन्द्यावर्तपुर के राजा अतिवीर्य का यणीयपूर्व पक्षधर योद्धा था । पपु० ३७.८, २० सात्यकि-आचार्य नंदिवर्धन के संघ के एक अवधिज्ञानी साघ । शालि- साघुवत्सल-राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ५८.२१ ग्राम के अग्निभूति और वायुभूति ब्राह्मण भाईयों को इन्होंने पूर्व जन्म साधुसमाधि--सोलहकारण भावनाओं में एक भावना-बाह्य और में वे दोनों शृगाल थे-ऐसा कहा था। इनके ऐसा कहने से, अग्नि- ___आभ्यन्तर कारणों से मुनिसंघ के तपश्चरण में विघ्न आने पर मुनिभूति और वायुभूति ने इन्हें तलवार से मारने का उद्यम किया था संघ की रक्षा करना । मपु० ६३.३२५, हपु० ३४.१३९ किन्तु किसी यक्ष के द्वारा कील दिये जाने से वे इन्हें नहीं मार सके साधुसेन-तीर्थङ्कर वृषभदेव के अड़तीसवें गणधर । हपु० १२.६१ थे । अन्त में दोनों जैसे ही अकोलित हुए कि इनसे उन्होंने श्रावक सानत्कुमार-ऊर्ध्वलोक में स्थित सोलह स्वर्गों में तीसरा स्वर्ग । इनमें धर्म श्रवण किया और दोनों श्रावक हो गये। पपु० १०९.४१-४८, और माहेन्द्र स्वर्ग में निम्न सात इन्द्रक विमान है-१. अंजन २. हपु० ४३.९९-१००, ११०-११५, १३६-१४५ वनमाल ३. नाग ४. गरुड ५. लांगल ६. बलभद्र और ७. चक्र । सात्यकिपुत्र-(१) ग्यारहवाँ रुद्र । हपु० ६०.५३४-५३६ दे० रुद्र पपु० १०५.१६७, हपु० ६.४८ (२) आगामी चौबीसवें तीर्थकर का जीव । मपु० ७६.४७४ सानु-राम का सामन्त । यह रथ पर बैठकर ससैन्य युद्ध करने निकला साधन-हिंसा आदि दोषों की शुद्धि के श्रावकाचार के तीन अंगों में था। पपु०५८.१८ तीसरा अंग-आयु के अन्त में शरीर, आहार और अन्य व्यापारों का सानुकम्प-यक्ष का छोटा भाई यक्षिल । निर्दय होने से यक्ष-निरनुकम्प परित्याग कर ध्यानशुद्धि से आत्मशोधन करना। मपु० ३९.१४३ के नाम से और दयावान् होने से यक्षिल सानुकम्प के नाम से विख्यात १४५, १४९ हुआ । निरनुकम्प ने एक अन्धे सर्प पर इसके रोकने पर भी बैलगाड़ी साधारण-वैण स्वर का एक भेद । हपु० १९.१४७ चला दी थी। इसने निरनुकम्प को बहुत समझाया था। मपु०७१. २७८-२८० दे० यक्षिल साधु-(१) अर्हन्त, सिद्ध, सूरि (आचार्य), उपाध्याय और साधु इन सानुकार-अच्युत स्वर्ग के तीन इन्द्रक विमानों में प्रथम इन्द्रक विमान । पाँच परमेष्ठियों में पांचवें परमेष्ठी । ये मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) को सिद्ध हपु० ६.५१ करने में सदा दत्तचित्त रहते हैं। इन्हें लोक को प्रसन्न करने का ___ सान्तानिको कल्पवृक्ष के फलों से निर्मित माला । चक्रवर्ती भरतेश को प्रयोजन नहीं रहता। इनका समागम पापहारी होता है। ये यह प्रभास-व्यन्तरदेव से भेंट में प्राप्त हुई थी। मपु० ३०.१२४ परोपकारी और दयालु होते हैं । ये बारह प्रकार के तपों द्वारा निर्वाण साम-राजाओं की प्रयोजन सिद्धि के चार कारणों-साम, दान, दण्ड की साधना करते हैं। निर्वाण की साधना करने से ही इन्हें यह नाम और भेद, में प्रथम कारण-प्रिय तथा हितकारी वचनों द्वारा विरोधी प्राप्त हुआ है । ये मन, वचन और काय से (१-५) पाँच महव्रतों को को अपना बनाना । मपु० ६८.६२-६३, हपु० ५०.१८ धारण करते, (६-१०) पाँच समितियों को पालते, (११-१५) पाँचों सामन्तवर्द्धन-विदेहक्षेत्र में रत्नसंचयनगर के मणि मंत्री का पुत्र । इसने इन्द्रियों का निरोध करते और (१६) समता (१७) वन्दना, (१८) राजा के साथ महाव्रत धारण कर लिए थे । अन्त में मरकर यह अवेयक स्तुति, (१९) प्रतिक्रमण (२०) स्वाध्याय (२१) कायोत्सर्ग तथा छः विमान में अहमिन्द्र हुआ और वहाँ से च्युत होकर रथनूपुर नगर में आवश्यक क्रियाएँ और (२२) केशलोंच करते हैं (२३) स्नान नहीं सहस्रार विद्याधर का इन्द्र नामक पुत्र हुआ । पपु० १३.६२-६६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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