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________________ श्वभ्र-भू-संख्य जैन पुराणकोश : ४१७ यिक, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग । मपु० ६१.११९, हपु० २.१२८, ३४.१४२-१४६ षड्ज-संगीत के सप्त स्वरों में एक स्वर । पपु० १७.२७७, हपु० १९. १५३ दे० स्वर षड्जकैकशी-संगीत की आठ जातियों में सातवीं जाति । इसका अपर नाम षड्जकैशिकी है । पपु० २४.१२, हपु० १९.१७४ षड्जमध्यमा-संगीत की षड्जग्राम से सम्बन्ध रखनेवाली आठ जातियों में आठवीं जाति । इसका अपर नाम षड्जमध्या है । पपु० २४.१५, हपु० १९.१७५ षड़जषड्जा-संगीत के स्वर की एक जाति । पपु० २४.१२ षष्ठोपवास-वेलाव्रत । दो दिन का उपवास षष्ठोपवास कहलाता है। मपु० ४८.३९, पपु० ५.७०, हपु० २.५८, १६.५६ पांड्गुण्य - राजा के छः गुणों का समूह । ये गुण हैं-सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और आश्रय । मपु० २८.२८, ४१.१३८ श्वभ्र-भू-नरक-भूमियाँ । ये सात हैं। मपु० १०.३१-३२ दे० नरक श्वसना-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी। चक्रवर्ती भरतेश की दिग्विजय के समय उनका सेनापति यहाँ ससैन्य आया था । मपु० २९.८३ श्वापद-विदेहक्षेत्र की एक अटवी । पुण्डरीक देश के चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्द के सामन्त पुनर्वसु के द्वारा अपहृता त्रिभुवनानन्द की पुत्री अनंगसरा पर्णलध्वी विद्या के सहारे इसी अटवी में आयी थी। पपु० ६४.५०-५५ श्वेतकर्ण-एक जंगली हाथी। पूर्वभव के वैरवश यह ताम्रकर्ण हाथी से लड़कर मरा और भैंसा हुआ था । मपु० ६३.१५८-१६० श्वेतकेतु-विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का सातवाँ नगर । मपु० १९.३८,५३ श्वेतकुमार-राजा विराट का पुत्र । युद्ध में यह भीष्म-पितामह द्वारा मारा गया । पापु० १९.१८५-१८६, १९५ श्वेतराम-जमदग्नि और रेणुकी का छोटा पुत्र । यह इन्द्र राम का छोटा भाई था । पिता के मारे जाने पर इन दोनों भाइयों ने कृतवीर से युद्ध करके सहस्रबाहु को मार डाला था। इसने इक्कीस बार क्षत्रियों का वध किया था। मपु० ६५.९०-९२, १११-११३, १२७ श्वेतवन-तीर्थकर मल्लिनाथ की दीक्षाभूमि । मपु० ६६.४७ श्वेतवाहन--(१) भरतक्षेत्र में कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर का एक सेठ । इसकी पत्नी बन्धुमती और पुत्र शंख था। मपु० ७१.२६०० २६१ (२) भरतक्षेत्र के अंग देश की चम्पा नगरी का राजा। इसने भगवान् महावीर से धर्म का स्वरूप सुनकर और पुत्र विमलवाहन को राज्य देकर संयम धारण कर लिया था। इसको दशलक्षण-धर्म में रुचि होने से यह धर्मरुचि नाम से प्रसिद्ध हुआ। मपु० ७६.८-२९ श्वेतिका-भरतक्षेत्र की नगरी। यहाँ का राजा वासव था। इसका अपर नाम श्वेताम्बिका था । मपु० ७१.२८३, हपु० ३३.१६१, वीवच०२.११७-११८ पाडव-चौदह मूर्च्छनाओं का एक स्वर । इसकी उत्पत्ति छः स्वरों से ___ होती है । हपु० १९.१६९ षाड्जी-षड्जग्राम से सम्बन्ध रखनेवाली स्वर की आठ जातियों में प्रथम ___ जाति । हपु० १९.१७४ षाष्ठिक–साठी नाम का अनाज । यह तीर्थकर वृषभदेव के समय में ___ उत्पन्न होने लगा था । मपु० ३.१८६ षोडशकारण-तीर्थंकर प्रकृति की बन्ध-हेतु सोलह भावनाएँ । मपु ७. ८८, ११.६८-७८, पपु० २.१९२, हपु० ३९.१ दे० भावना षटकर्म-वृषभदेव द्वारा प्रजा को आजीविका के लिए बताये गये छः कार्य । वे हैं-असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प कर्म। मपु० १६.१७९-१८०, १९१, हपु० ९.३५, पापु० २.१५४ षटकाय-त्रस तथा पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पतिकाय के जीव । मपु० ३४.१९४, पपु० १०५.१४१ । षडंगवल-छः अंगोंवाली एक विद्या । ये अंग है हस्तिसेना, अश्वसेना, रथसेना, पदातिसेना, देवसेना और विद्याधरसेना। यह बल चक्रवर्ती राजाओं का होता है । मपु० २९.६ षडंगिका-एक विद्या । अर्ककोर्ति के पुत्र अमिततेज ने यह विद्या सिद्ध की थी। मपु० ६२.३८६, ३९६ षडारि-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य । ये मानव के विकास में बाधक होते हैं। मपु० १०.१४१ षडावश्यक-मुनियों के छः आवश्यक कर्त्तव्य । उनके नाम है-सामा संकट-राम का सहायक वानरवंशी एक कुमार । यह विद्या साधना में रत रावण को कुपित करने लंका गया था। पपु०७०.१५, १८ संकट-प्राहर-राम का सामन्त । इसने सिंहवाही रथ पर सवार होकर रावण की सेना से युद्ध किया था । पपु० ५८.११ संक्रम-अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के चौथे प्राभृत कर्मप्रकृति का बारहवाँ योगद्वार । हपु० १०.७७, ८१-८३, दे० आग्रायणीयपूर्व संक्रान्तकर्म-पुस्तकर्म के क्षय, उपचय और संक्रम (संक्रान्त) इन तीन भेदों में तीसरा भेद । साँचे आदि की सहायता से खिलौने आदि बनाना संक्रान्तकर्म कहलाता है । पपु० २४.३८-३९ संक्रोध-राम का पक्षधर एक वानर योद्धा । इसने युद्ध में राक्षस पक्ष के योद्धा क्षपितारि को मारा था । पपु० ६०.१३, १६, १८ संक्षेपजसम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन के दस भेद । पदार्थों के संक्षिप्त कथन के तत्त्वों में श्रद्धा उत्पन्न हो जाना संक्षेपजसम्यग्दर्शन है। मपु ७४. ४३९-४४०, ४४५, वीवच० १९.१४८ संख्य-एक मुनि । वसुदेव के सुदूर पूर्वभव के जीव शालिग्राम के एक दरिद्र ब्राह्मण ने अपने मामा की पुत्रियों द्वारा घर से निकाल दिये जाने पर इन्हीं मुनि से धर्म और अधर्म का फल सुनकर दीक्षा ली थी। मपु० १८.१२७-१३३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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