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________________ ४१८ : जैन पुराणकोश संख्या-जीवादि पदार्थों के भेदों की गणना । यह आठ अनुयोग द्वारों में दूसरा अनुयोग द्वार है । हपु० २.१०८ संगमक-(१) एक देव । यह वर्द्धमान के पराक्रम की परीक्षा करने के लिए स्वर्ग से उनके पास आया था । वर्द्धमान और उनके साथियों को डराने के लिए यह सपं का रूप धारण करके वृक्ष के तने से लिपट गया था। वर्द्धमान के साथी डरकर डालियों से कूद-कूदकर भाग गये, किन्तु वर्द्धमान ने सर्प पर चढ़कर निर्भयता पूर्वक क्रीड़ा की थी। वर्द्धमान की इस निडरता से प्रसन्न होकर इस देव ने उनको महावीर इस नाम से सम्बोधित करके उनकी स्तुति की। मपु० ७४.२८९२९५, वीवच० १०.२३-३७ (२) पाताललोक का निवासी एक देव । पूर्वधातकीखण्ड के भरतक्षेत्र की अमरकंकापुरी के राजा पद्मनाभ ने द्रौपदी को पाने की इच्छा से इस देव की आराधना की थी। आराधना के फलस्वरूप यह देव द्रौपदी को पद्मनाथ की नगरी में उठा लाया था। हपु० ५४.८-१३, पापु० २१.५२-५८ संग्रहग्राम-(१) दस ग्रामों का मध्यवर्ती ग्राम । यहाँ सुरक्षार्थ वस्तुओं का संग्रह किया जाता है । मपु० १६.१७६ (२) एक नय । अनेक भेदों और पर्यायों से युक्त पदार्थ को एकरूपता देकर ग्रहण करना संग्रहनय कहलाता है। हपु० ५८. ४१, ४४ संग्रहणी-एक विद्या। अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज ने यह विद्या सिद्ध ___ की थी। मपु० ६२.३९४, ४०० संग्राम-राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ५८.१६ संग्रामचपल-एक विद्याधर राजा। यह राम का सहयोग करने के लिए व्याघ्ररथ में बैठकर रावण की सेना से युद्ध करने निकला था। पपु० ५८.६ संग्रामणी-एक विद्या । यह अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज द्वारा सिद्ध की गयी थी। मपु० ६२.३९३ संघ-रलत्रय से युक्त श्रमणों का समुदाय । यह मुनि-आर्यिका, श्रावक श्राविका के भेद से चार प्रकार का होता है। पपु० ५.२८६, हपु० ६०.३५७ संघाट-वंशा-दूसरी नरकभूमि के छठे प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसको चारों दिशाओं में एक सौ चौबीस और विदिशाओं में एक सौ बीस कुल दो सौ चवालीस श्रेणिबद्ध बिल है । हपु० ४.७८, ११० । संघात-श्रुतज्ञान के बीस भेदों में सातवाँ भेद । एक-एक पद के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि के क्रम से संख्यात हजार पदों के बढ़ जाने पर यह संघात श्रुतज्ञान होता है। हपु० १०.१२ दे० श्रुतज्ञान संघात समास-श्रुतज्ञान के बीस भेदों में आठवाँ भेद । हपु० १०.१२ । दे० तज्ञान संचारी-संगोत में प्रयुक्त स्थायी, संचारी आरोही और अवरोही इन चार प्रकार के वर्षों में दूसरे प्रकार के वर्ण । पपु० २४.१० संजय-(१) विद्याधर विनमि का पुत्र । इसकी दो बहिनें थीं-भद्रा और सुभद्रा । हपु० २२.१०३-१०६ संख्या-संज्ञासंक्षा (२) एक चारण मुनि । इनके साथ विहार करनेवाले चारणमुनि का नाम विजय था। इन मुनियों का सन्देह वर्द्धमान के दर्शन मात्र से दूर हो गया था। अतः इस घटना से प्रभावित होकर इन्होंने वर्द्धमान को "सन्मति" नाम से सम्बोधित किया था। मपु० ७४. २८२-२८३ (३) राजा चरम का पुत्र । यह नीति का जानकार था। हपु० १७.२८ (४) एक राजा, जो रोहिणी के स्वयंवर में गया था। हपु० ३१.२९ संजयन्त-(१) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेहक्षेत्र में गन्धमालिनी देश के वीतशोकनगर के राजा वैजयन्त और रानी सर्वश्री का ज्येष्ठ पुत्र । इसके छोटे भाई का नाम जयन्त और पुत्र का नाम वैजयन्त था । ये दोनों भाई स्वयंभू मुनि से अपने पिता के साथ वैजयन्त को राज्य सौंपकर दीक्षित हो गये थे । विद्याधर विद्यु दंष्ट्र ने पूर्वभव के वैर के कारण इन्हें भीम वन से उठाकर भरतक्षेत्र के इला पर्वत में पांच नदियों के संगम पर छोड़ा था और इसी के कहने से विद्याधरों ने इन्हें अनेक कष्ट दिये थे। इन्होंने उपसर्गों को सहन किया और घोर तपस्या करके मुक्ति प्राप्त की। मपु० ५९.१०९-१२६, पपु० १.५१५२, ५.२५-२९, १४६-२७३, हपु० २७.५-१६ (२) कौरव पक्ष का एक योद्धा राजा। यह पराजित होकर युद्ध से भाग गया था । पापु० २०.१४९ (३) एक मुनि । इनकी प्रतिमा ह्रीमन्त पर्वत पर स्थापित की गयी थी । पोदनपुर के राजा श्रीविजय ने यहीं पर महाज्वाला-विद्या की सिद्धि की थी। कुमार प्रद्युम्न ने भी यहीं विद्या सिद्ध की थी। मपु० ६२.२७२-२७४, ७२.८० (४) हरिवंशी राजा श्रीवृक्ष का पुत्र और कुणिम का पिता । पपु० २१.४९-५० (५) चरमशरीरी जयकुमार का छोटा भाई। यह अपने भाई जयकुमार के साथ दीक्षित हो गया था। मपु० ४७.२८०-२८३ संजयन्ती-विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी की तीसरी नगरी । मपु० १९.५०, ५३ संज्वलन-एक कषाय । यह चार प्रकार की होती है-संज्वलन-क्रोध, संज्वलनमान, संज्वलन-माया और संज्वलन-लोभ । अप्रत्याख्यानावरणक्रोध, मान, माया और लोभ तथा प्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया और लोभ इन आठ कषायों का क्षय होने के पश्चात् इस कषाय का नाश होता है । मपु० २०.२४५-२४७ संज्वलित-तीसरी मेघा नाम की नरकभूमि के नौ प्रस्तारों में आठवें प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में बहत्तर और विदिशाओं में अड़सठ कुल एक सौ चालीस श्रेणिबद्ध बिल है । हपु० ४.८१, १२५ संज्ञासंज्ञा-क्षेत्र का एक प्रमाण विशेष । आठ अवसंज्ञाओं की एक संज्ञासंज्ञा होती है । हपु. ७.३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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