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________________ ४१६ : जैन पुराणकोश श्रेयस्कर-श्वपाको श्रेयस्कर-तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ का पुत्र । मपु० ५७.४६ मनःपर्ययज्ञान हुआ । इन्हें सिद्धार्थ नगर में राजा नन्द ने आहार श्रेयस्पुर-भरतक्षेत्र का एक नगर । वहाँ का राजा शिवसेन था। देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। छदमस्थ अवस्था के दो वर्ष बाद ही मपु० ४७.१४२ मनोहर उद्यान में तुम्बुर वृक्ष के नीचे माघ कृष्ण अमावस्या के दिन श्रेयान्–(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० श्रवण नक्षत्र में इन्हें केवलज्ञान हुआ। इनके संघ में कुन्थु आदि २५.२०९ सतहत्तर गणधर, तेरह सौ पूर्वधारी, अड़तालीस हजार दो सौ शिक्षक, (२) पुरुषोत्तम नारायण के पूर्वभव के दीक्षागुरु । पपु० २०. छह हजार अवधिज्ञानी, छः हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, ग्यारह हजार विक्रियाऋद्धिधारी, छः हजार मनःपर्ययज्ञानी और पांच (३) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में हजार वादी मुनि तथा एक लाख बीस हजार धारणा आदि आर्यिकाएँ उत्पन्न शलाकापुरुष एवं ग्यारहवें तीर्थङ्कर । इनका अपर नाम श्रेयस् थीं। सम्मेदशिखर पर इन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमाथा । पपु० ५.२१४, हपु० १.१३, वीवच० १८.१०१-१०६ दे० योग धारण किया था । श्रावण शुक्ल पौर्णमासी के दिन सायंकाल श्रेयांसनाथ के समय घनिष्ठा नक्षत्र में शेष कर्मों का क्षय करके ये--"अ इ उ (४) कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर के कुरुवंशी राजा सोम- ऋ लु इन पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है प्रभ के भाई । वषभदेव को देखकर इन्हें पूर्वभव में अपने द्वारा दिये उतने समय में मुक्त हुए। ये दूसरे पूर्वभव में पुष्कराध द्वीप में गये आहार दान का स्मरण हो आया था। इससे ये विधिपूर्वक सुकच्छ देश के क्षेमपुर नामक नगर के नलिनप्रभ नामक राजा थे । वृषभदेव के लिए इक्षु रस का आहार दे सके थे। आहारदान देने इस पर्याय में तीर्थङ्कर-प्रकृति का बन्ध करके आयु के अन्त में की प्रवृत्ति का शुभारम्भ इन्हीं ने किया था। अन्त में ये दीक्षा लेकर समाधिमरणपूर्वक देह त्याग करके अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए और वहाँ वृषभदेव के गणधर हुए । दसवें पूर्वभव में ये धनश्री, नौवें में निर्मा- से चयकर इस पर्याय में जन्मे थे। मपु० ५७.२-६२, पपु० २०. मिका, आठवें में स्वयंप्रभा देवी, सातवें में श्रीमती, छठे में भोगभूमि ४७-६८ ११४, १२०, हपु० ६०.१५६-१९२, ३४१-३४९ की आर्या, पाँचवें में स्वयंप्रभ देव, चौथे में केशव, तीसरे में अच्युत श्रेयोनिषि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० स्वर्ग के इन्द्र, दूसरे में धनदत्त, प्रथम पूर्वभव में अहमिन्द्र हए थे । २५.२०३ मपु० ६.६०, ८.३३, १८५-१८८, ९.१८६, १०.१७१-१७२, __ श्रेष्ठ--सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२२ १८६, ११.१४, २०.३०-३१, ७८-८१, ८८, १२८, २४.१७४, श्रेष्ठो-आगामी उत्सपिणी काल के सातवें तीर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७२ ४३.५२, ४७. ३६०-३६२, हपु० ९.१५८, ४५.६-७ श्रोता-धर्म को सुननेवाले पुरुष । ये चौदह प्रकार के होते हैं । इनके श्रेयांसनाथ-अवसर्पिणी काल के ग्यारहवें तीर्थङ्कर । ये जम्बूद्वीप के ये भेद जिन पदार्थों के गुण-दोषों से तुलना करके बताये गये हैं उनके भरतक्षेत्र में सिंहपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा विष्णु और रानी नाम है-मिट्टी, चलनी, बकरा, बिलाव, तोता, बगुला, पाषाण, सर्प, नन्दा के पुत्र थे। ये ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी श्रवण नक्षत्र में प्रातःकाल के गाय, हंस, भैंसा, फूटा घड़ा, डाँस और जोंक । इनमें जो गाय और समय रानी नन्दा के गर्भ में आये तथा फाल्गुन कृष्ण एकादशी के हंस के समान होते हैं उन्हें उत्तम श्रोता कहा गया है। मिट्टी और दिन विष्णुयोग में इनका जन्म हुआ। जन्म के समय रोगी निरोग तोते के समानवृत्ति के मध्यम श्रोता और शेष अधम श्रेणी के माने हो गये थे। चारों निकाय के देवों ने आकर इनका जन्माभिषेक किया गये हैं । गुण और दोषों के बतलानेवाले श्रोता सत्कथा के परीक्षक था। सौधर्मेन्द्र ने जन्माभिषेक के पश्चात् आभूषण आदि पहनाकर होते हैं । शास्त्रश्रवण से सांसारिक सुख की कामना नहीं की जाती । इनका श्रेयांस नाम रखा था । इनका जन्म शीतलनाथ के मोक्ष जाने श्रोता के आठ गुण होते हैं। वे हैं-शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण के बाद सौ सागर, छियासठ लाख और छब्बीस हजार वर्ष कम एक स्मृति, ऊह, अपोह और निर्णीती। शास्त्र सुनने के बदले किसी करोड़ सागर प्रमाण अन्तराल बीत जाने पर हुआ था। इनकी कुल सांसारिक फल की चाह नहीं करना श्रोता का परम कर्तव्य है । मपु० आयु चौरासी लाख वर्ष की थी। शरीर सोने की कान्ति के समान १.३८-१४७ था । ऊँचाई अस्सी धनुष थी। कुमारावस्था के इक्कीस लाख वर्ष पलक्ष्ण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४४ बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था। इन्होंने बयालीस वर्ष तक श्लक्ष्णरोम-सिंहलद्वीप का राजा । इसकी रानी कुरुमती तथा लक्ष्मणा राज्य किया। इसके पश्चात् वसन्त के परिवर्तन को देखकर इन्हें पुत्री थी। हमु०४४.२००२४, ६०.८५ वैराग्य जागा । लौकान्तिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की। इन्होंने श्लेष्मान्तक-एक वन । यहाँ तापस वेष में पाण्डव आये थे। हपु० राज्य श्रेयस्कर पुत्र को दिया तथा विमलप्रभा पालकी में बैठकर ये मनोहर नामक वन में गये। वहां इन्होंने दो दिन के आहार का त्याग श्वपाको-मातंग जाति के विद्याधरों का एक निकाय । ये विद्याधर पीत करके फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन प्रातःबेला और श्रवण नक्षत्र केशधारी, तप्तस्वर्णाभूषणों से युक्त होकर श्वपाकी विद्या-स्तम्भों में एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया । इसी समय इन्हें का आश्रय लेकर बैठते हैं । हपु० २६.१९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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