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________________ जैन पुराणकोश व्युत्सर्ग-व्रतचर्याक्रिया : ३९१ पाराशर और रानी सत्यवती का पुत्र था। इसकी सुभद्रा स्त्री थी। इन दोनों के तीन पुत्र हुए थे-धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर । इनकी माँ का नाम योजनगन्धा अपर नाम गुणवती था। व्यास का दूसरा नाम धृत्मर्त्य था। मपु० ७०.१०१-१०३, पापु० २.३९-४१, ७.११४-११७, ८.१७ व्युत्सर्ग-(१) आभ्यन्तर तप का पाँचवाँ भेद । आत्मा को देह से भिन्न जानकर शरीर से निस्पृह होकर तप करना व्युत्सर्ग-तप कहलाता है। इसमें बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग किया जाता है । यह दो प्रकार का होता है-आभ्यन्तरोपाधित्याग-तप और बाह्योपाधित्याग-तप । इनमें क्रोध आदि अन्तरंग उपाधि का त्याग करना तथा शरीर के विषय में "यह मेरा नहीं है" इस प्रकार का विचार करना आभ्यन्तरोपाधित्याग-तप और आभूषण आदि बाह्य उपाधि का त्याग करना बाह्योपाधित्याग-तप है। इन दोनों उपाधियों का त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और जिजोविषा को दूर करने के लिए किया जाता है। मपु० २०.१८९, २००-२०१, पपु० १४.११६११७, हपु० ६४.३०, ४९-५०, वीवच० ६.४१-४६ । (२) प्रायश्चित्त के नौ भेदों में पांचवां भेद । कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त-तप कहलाता है। यह अतिचार लगने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है । हपु० ६४.३५ व्युष्टिक्रिया-गर्भान्वय क्रियाओं में ग्यारहवीं क्रिया। यह जन्म से एक वर्ष बाद की जाती है । इसका दूसरा नाम वर्षवर्धन है । इसमें अर्हन्त की पूजा, अग्नियों में मन्त्रपूर्वक आहुति का क्षेपण, दान, इष्ट बन्धुओं को आमन्त्रित करके भोजन आदि कराया जाता है। इस क्रिया में आहुति-क्षेपण करते समय निम्न मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है-उपनयनजन्मवर्षवर्धन भागी भव, वैवाहनिष्ठ वर्षवर्द्धनभागीभव, मुनीन्द्रजन्म वर्षवर्द्धनभागीभव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागीभव, मन्दराभिषेकवर्षवर्द्धनभागीभव, यौवनराज्यवर्षवर्द्धनभागीभव और आर्हन्त्य राज्यवर्षवद्धनभागीभव । मपु० ३८.५६, ९६-९७, ४०.१४३-१४६ व्यूह-सैन्य-रचना। यह विविध प्रकार से होती थी। भरतेश ने दिग्विजय के समय दण्डव्यूह, मण्डलव्यूह, भोगव्यूह और असंहृत-व्यूह से अपनी सैन्य रचना की थी। जयकुमार और अर्ककीर्ति ने भी युद्ध के समय मकर व्यूह, चक्रव्यूह, गरुडव्यूह से सैन्य-गठन किया था। मपु० ३१.७६-७७, ४४.१०९-११२ व्योमगामिनी-एक विद्या । यह दशानन को प्राप्त थी। मपु० ५.१००, ' पपु० ७.३३३ व्योमधिम्दु-कौतुकमंगल नगर का एक विद्याधर । नन्दवतो इसकी स्त्री थी। इसकी दो पुत्रियां थीं-कौशिका और केकसी। इनमें कौशिकी बड़ी और केकसी छोटा पुत्री थी । पपु० ७.१२६-१२७ व्योममूर्ति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२८ व्योमवल्लभ-भरतक्षेत्र के विजयाद्ध पर्वत को उत्तरश्रेणी का दूसरा नगर । इसका अपर नाम गगनवल्लभ था। हपु० २२.८५, पापु० व्योमेन्दु-एक विद्याधर राजा। यह चन्द्र चूड विद्याधर का पुत्र तथा उडुपालन विद्याधर का पिता था । पपु० ५.५२ प्रज-मथुरा के पास का एक नगर । कृष्ण यहाँ रहते थे। मपु० ७०.४५५, ४६१ वण संरोहिणी-एक विद्या। धरणेन्द्र ने यह विद्या नमि और विनमि को दी थी। हपु० २२.७१ व्रत-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह इन पाँचों पापों से विरति । इसके दो भेद है-अणुव्रत और महाव्रत । इनमें उक्त पांचों पापों से एक देश विरत होना अणुव्रत और सर्वदेश विरत होना महाव्रत है। प्रत्येक व्रत की पांच-पाँच भावनाएं होती है। इनमें सम्यक् वचनगुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, देखकर भोजन करना, ईर्या और आदाननिक्षेपण समिति ये पाँच अहिंसाव्रत की भावनाएं है। क्रोध, लोभ, भय और हास्य का त्याग करना तथा प्रशस्तवचन बोलना सत्यव्रत की पाँच भावनाएं हैं। शन्य और विमोचित मकानों में रहना, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनाएं है । स्त्रीरागकथाश्रवण, स्त्रियों के अंगावयवों का दर्शन, शारीरिक प्रसाधन, गरिष्ठ-रस और पूर्व रति-स्मरण इनका त्याग ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत की और पंच इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष का त्याग करना ये पांच अपरिग्रह की भावनाएं हैं । पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को मिलाकर व्रत बारह प्रकार के होते है । ये स्वर्ग और मुक्ति-दायक होते हैं । मपु० १०.१६२, .३९.३,७६.३६३-३७०, ३७८-३८०, पपु० ११.३८, हपु० ३४.५२ १४९,५८.११६-१२२ तकीर्तन-चन्द्रपुर नगर के राजा हरि और रानी धरादेवी का पुत्र । यह मुनिधर्म को पालते हुए मरकर स्वर्ग गया और वहाँ से च्युत होकर पश्चिम विदेहक्षेत्र के रत्नसंचय नगर के राजा महाघोष और रानी चन्द्रिणी का पयोबल नाम का पुत्र हुआ । पपु० ५ १३५-१३७ बतचर्याक्रिया-(१) गर्भान्वय-त्रेपन क्रियाओं में पन्द्रहवीं क्रिया । इसमें ब्रह्मचर्यव्रत के योग्य कमर, जांघ, वक्ष-स्थल और सिर के चिह्न धारण किये जाते हैं । कमर में रत्नत्रय का प्रतीक तोन लर का मौन्जोबन्धन, जाँघ पर अहंन्त कुल को पवित्रता और विशालता की प्रतीक धोती, वक्षःस्थल पर सप्त परमस्थानों का सूचक सात लर का यज्ञोपवीत और सिर का मुण्डन कराया जाता है । इस चर्या में लकड़ी की दातौन नहीं की जाती, पान नहीं खाया जाता, अंजन नहीं लगाया जाता हल्दी आदि का लेप लगाकर स्नान नहीं किया जाता, अकेले पृथ्वी पर शयन करना होता है । यह सब द्विज तब तक करता है जब तक उसका विद्याध्ययन समाप्त नहीं होता। इसके पश्चात् उसे गृहस्थों के मूलगुण धारण करना और श्रावकाचार एवं अध्यात्मशास्त्र आदि का अध्ययन करना होता है । मपु० ३८.५६, १०९-१२० ।। (२) दीक्षान्वय क्रियाओं में दसवी क्रिया । इसमें यज्ञोपवीत से युक्त होकर शब्द एवं अर्थ दोनों प्रकार से उपासकाध्ययन के सूत्रों का भलो प्रकार अभ्यास किया जाता है । मपु० ३९.५७ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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