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________________ व्रतधर-शव ३९२ : जैन पुराणकोश व्रतधर-एक मुनि । कृष्ण को छोटी बहिन तथा यशोदा की पुत्री ने इन्हीं मुनि से अपने कुरूप होने का कारण ज्ञातकर आर्यिका के व्रत लिये थे । हपु० ४९.१, १३-१७, २१ व्रतधर्मा-कुरुवंश का एक राजा । यह श्रीव्रत का पुत्र और धृत का पिता था । हपु० ४५.२९ व्रतप्रतिमा-श्रावकधर्म और ग्यारह प्रतिमाओं में दूसरी प्रतिमा। इस प्रतिमा का धारी व्रती शल्य रहित होकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत धारण करता है । वीवच० १८.३७ व्रतसंरोहण-एक विद्यास्त्र । विद्याधर चण्डवेग ने यह वसुदेव को दिया था । हपु० २५.४९-५० व्रतावतरणक्रिया--(१) गर्भान्वय-त्रेपन क्रियाओं में सोलहवीं क्रिया। यह गुरु की साक्षीपूर्वक बारह अथवा सोलहवें वर्ष में सम्पन्न की जाती है। इसमें मद्य-मांस और पांच उदुम्बर फलों का तथा पंच स्थूल पापों का सार्वकालिक त्याग किया जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गुरु की आज्ञा से वस्त्र, आभूषण और माला आदि ग्रहण कर सकते हैं । क्षत्रिय आजीविका की रक्षा अथवा शोभा के लिए शस्त्र भी धारण कर सकते है। जब तक आगे की क्रिया नहीं होती तब तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तीनों वर्गों के लिए आवश्यक है। मपु० ३८.५६, १२१-१२६ (२) दीक्षान्वय क्रियाओं में ग्यारहवीं किया। इसमें विद्याभ्यास के पश्चात् शिष्य गुरु के समीप विधिपूर्वक पुनः आभूषण आदि ग्रहण करता है । मपु० ३९.५८ व्रती--माया, निदान और मिथ्यात्व इन तीन शल्यों से रहित व्रतधारी। ये हिंसा आदि पांचों पापों से एक देश विरत रहते है। इनके दो भेद है-सागार और अनगार । इनमें व्रतों का एक देश पालन करनेवाले सागार अणुव्रती और पूर्ण रूप से व्रतों का पालन करनेवाले अनगार महाव्रती कहलाते हैं । मपु० ५६.७४-७५, ७६.३७३-३७६, हपु० ५८.१३४-१३७ वात--कुरुवंशी का एक राजा । यह सुव्रत का पुत्र और मन्दर का पिता था। हपु० ४५.११ बोहि-वर्षा के आरम्भ में बोया जानेवाला अनाज-धान्य । वृषभदेव के समय में यह उत्पन्न होने लगा था। मपु० ३.१८६ पूर्वभव सुनकर मुनि द्रुमषेण से दीक्षा ले ली थी। मपु० ७१.२६०. २६१, २८७, हपु० ३३.१४१, १६४ (३) चक्रवर्ती भरतेश की नौ निधियों में एक निधि । मपु० ३७.८१, हपु० ११.११०, १२० (४) हरिवंशी राजा नभसेन का पुत्र । यह राजा भद्र का पिता था । हपु० १७.३५ (५) लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा के वडवामुख पाताल-विवर का समीपवर्ती एक पर्वत । हपु० ५.४६२ (६) एक वाद्य । इसे फूंक कर बजाया जाता है । मपु० १३.१३, १७.११३ (७) जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर । वैश्य देविल इसी नगर का निवासी था । मपु० ६२.४९४ (८) धातुकीखण्ड द्वीप के ऐरावतक्षेत्र में विजया पर्वत को दक्षिण श्रेणी के मन्दारनगर का राजा । जयादेवी इसकी रानी तथा पृथिवीतिलका पुत्री थी। मपु० ६३.१६८-१७० (९) आगामी आठवें तीर्थंकर का जीव । मयु० ७६.४७१-४७२ (१०) रावण का एक योद्धा । पपु० ५७.५३, ६६.२५ शंखपुर-धातकीखण्ड द्वीप के ऐरावतक्षेत्र का एक नगर । राजगुप्त यहाँ कानप था। मपु० ६३.२४६ दे० राजगुप्त शंखवन-विजयाध को दक्षिणश्रेणी का तेईसवाँ नगर । हपु० २२.९६ शंखवर-मध्यलोक के प्रथम सोलह द्वीपों और सागरों में बारहवाँ द्वीप और सागर । यह द्वीप इसी नाम के सागर से घिरा हुआ है। हपु० ५.६१८ शंखशल-घातकोखण्ड द्वीप का एक पर्वत । शंखपुर के राजा राजगुप्त और रानी शंखिका ने इसी पर्वत पर सर्वगुप्त मुनि से जिनगुणख्यातिव्रत ग्रहण किया था । मपु० ६३.२४६-२४८ शंखा-पूर्व विदेह का एक देश । मपु० ६३.२११, हपु० ५.२४९ शंखिका-धातकीखण्ड द्वीप के ऐरावतक्षेत्र में स्थिति शंखपुर नगर के राजा राजगुप्त की रानी। इसने और इसके पति दोनों ने शंखशैल पर मुनिराज धृतिषेण को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। मपु० ६३.२४६-२५० शब-कृष्ण और उनकी पटरानी जाम्बवती का पुत्र । कृष्ण को पटरानी रुक्मिणी ने अपने भाई रुक्मी से अपने पुत्र प्रद्युम्न के लिए उसकी पुत्री वैदर्भी की याचना की थी। रुक्मी ने पूर्व विरोध के कारण यह निवेदन स्वीकार नहीं किया था। इससे कुपित होकर इसने और प्रद्य म्न दोनों ने भील के वेष में रुक्मी को पराजित कर बलपूर्वक वैदर्भी का हरण किया था। इसके पश्चात् वैदर्भी का विवाह प्रद्युम्न से हुआ। इसने कदम्ब वन में मदिरा-पान कर तप में लीन मुनि द्वैपायन पर अनेक उपसर्ग किये थे। उपसर्ग के कारण उत्पन्न मुनि के कोप को द्वारिका के भस्म होने का कारण जानकर यह दीक्षित हो गया था । अन्त में गिरनार पर्वत से इसका निर्वाण हुआ। यह सातवें पूर्वभव मे शृगाल था, छठे पूर्वभव में वायुभूति-ब्राह्मण, पाँचवें पूर्वभव मे सौधर्म स्वर्ग में देव, चौथे पूर्वभव में मणिभद्र सेठ का पुत्र, तीसरे शंकर-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३६, २५.७४, १८९ शंकुक-विद्याओं का एक निकाय । अदिति देवी ने यह निकाय नमि ___ और विनमि विद्याधरों को दिया था । हपु० २२.५६, ५८ दे० विद्या शंख-(१) कृष्ण का पुत्र । हपु० ४८.७१ (२) भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नगर के निवासी सेठ श्वेतवाहन और सेठानी बन्धुमती का पुत्र । इसने अपने मित्र निर्नामक का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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